पाँच-पाँच किलो के पीले रंग के डब्बे घर में इकट्ठे हो जाया करते थे.. हरे रंग से डालडा लिखा हुआ होता था.. और एक मुझे अच्छे से आज भी याद है.. डब्बे पर एक हरे रंग का पेड़ भी बना होता था।

भई! बचपन में डालडे से बने पराठें और पूड़ियाँ तो ख़ूब खायीं हैं। उन दिनों डालडे का ही चलन हुआ करता था।

घर में तो डालडा ही आया करता था.. या फ़िर सरसों का तेल और घी चला करता था।

उस डालडे के डब्बे में मेरी माँ के हाथों के खाने का जादू और प्यार भरा था..

रिश्तेदारों का जब कभी आना होता.. तो हमसे पानी-वानी भरने के लिए.. यह डालडे के डब्बे ले जाया करते थे।

वो डालडे का डब्बा.. आज डालडे वाला रिफाइंड पैकेट देख.. याद क्या आया.. 

एक ही पल में ये मन माँ की रसोई में जा खड़ा हो.. उन्हीं पूड़ी और पराठों के मज़े लेने लगा था।

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