“पता नहीं! अपने आप को क्या समझते हैं.. थोड़ा सा भी कुछ नहीं आता! 

मैं तो ऐसे करती.. कि सब बेहद ख़ुश हो जाते।”

असल में होता क्या है.. कि हम अपनों में.. और रिश्तों में कमियाँ ही निकालते रहते हैं.. यानी के परफेक्शन ढूंढते हैं।

जीवन का आधा क्या पूरा वक्त यूँहीं.. ईर्ष्या और एक दूसरे के प्रति ऊँच-नीच की भावना में निकल जाता है।

इस तरह की प्रतिक्रियाएं केवल हम अपनों को लेकर ही देते हैं.. एक दूसरे की टाँग खींचने में पता नहीं क्यों.. मज़ा सा आता है।

किसी अनजान के साथ नहीं.. बल्कि अपने ही अपनों के दुश्मन पता नहीं क्यों बन जाते हैं।

ये मन पता नहीं क्यों.. छोटी सी बात नहीं समझ पाता.. 

अरे! जीवन चार दिनों का मेला है.. यहाँ परफेक्शन जैसा कुछ भी नहीं है.. अपनों के रंगों और अपनेपन के अहसास से ही तो संवरता है – यह जीवन।

सभी रिश्तों के रंग प्यारे होते हैं.. काला रंग भी उतनी ही सुंदरता लिए हुए, होता है.. जितने के और रंग।

हर रिश्ते से उसके उसी रूप में प्यार करें.. मान-सम्मान करें.. अपना-तेरी में क्या रखा है.. किसका साथ कब छूट जाए.. क्या पता!

खोने के बाद कोई अपना क्या.. अनजान भी बहुत याद आता है.. 

रिश्तों के अपनेपन और उसकी मिठास को पहचाने किसी परफेक्शन के पीछे भागना व्यर्थ है।

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