” ट्रैन कहाँ तक पहुँची!”

” बस! पहुँचने ही वाली है!”।

दिल्ली के लिए विवाह के पश्चात यात्रा कर रहे हमसे.. भाईसाहब ने पूछा था.. दअरसल बहुत वर्षों के बाद इस बार अकेले में दिल्ली जो आने का अवसर प्राप्त हुआ था। 

खैर! अकेले आने-जाने की बात भी नहीं थी.. पर अब एक तो शहर में भीड़-भाड़ ज़्यादा हो गई है.. और मेट्रो का भी चक्कर है.. आना-जाना टैक्सी से भी किया जा सकता है.. पर मेट्रो हर तरह से सुविधाजनक लगने लगी है.. 

अब हमें पता तो था.. स्टेशन से उतर कर मेट्रो से आगे घर तक कैसे जाना है.. और भाईसाहब ने instructions भी दे ही दिये थे.. पर अकेले कुछ अजीब सा महसूस हुआ था..

स्टेशन पहुँच मेट्रो ट्रेन की टिकट खरीद.. ट्रैन के अंदर दाखिल हो गए थे.. 

कॉलेज के छात्र-छात्रा ट्रैन में सफ़र कर रहे थे. अचानक से उनको देख.. अपना बीता हुआ कल याद आ गया था.. सारा मेट्रो डर पल भर में ख़त्म हो गया.. कहाँ से जाना है.. कौन सी लाइन चेंज करनी है.. वगरैह-वगरैह!

पाँव में स्फूर्ति आ गयी थी..  सफ़र के इन चंद घँटों में कॉलेज की दुनिया में पहुँच फ़िर उम्र के उसी पड़ाव को महसूस कर..  कॉलेज गर्ल की तरह दौड़ते हुए.. पहले की तरह भीड़ को पार कर और मेट्रो में अपने-आप को वही कॉलेज की छात्रा समझते हुए.. घर तक का सफ़र तय किया था।

जैसे कभी एक ज़माने में कॉलेज से आकर घन्टी बजाते थे.. ठीक उसी तरह से पूरे जोश में घन्टी बजायी थी..

” नमस्ते बुआ!”।

द्वार पर भतीजी के स्वागत ने हमें दोबारा से हमारे कल से आज में लाकर खड़ा कर दिया था..!

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