आज घर की छत्त पर खड़े होकर देखा.. गेट पर रंग-बिरंगी चूड़ियों का ठेला लिए.. भईया खड़ा था.. रंग-बिरंगी चूड़ियाँ देखकर हमारा सारा बचपन हमारी आँखों के आगे घूम गया.. हमें अच्छे से याद है.. जब भी माँ के संग गाँव जाया करते .. तो नानी चूड़ी पहनाने के लिए मनिहार को बुलवा लिया करतीं थीं। माँ, मामी सभी नई चूड़ियाँ पहना करते.. हम वहीं खड़े उन चूड़ियों के सुंदर रंग देखा करते थे.. बहुत सुंदर और प्यारे रंग लगा करते थे.. हमें उन चूड़ियों के।

अपनी छोटी सी कलाई आगे कर कुछ काँच की सुंदर रंगीन चूड़ियां हम भी पहन लिया करते थे।

माँ की देखा-देखी चूड़ियाँ पहनना और गुड्डे-गुड़ियों संग घर-घर खेलना… यहीं से एक कन्या का मानसिक विकास शुरू हो जाता है.. मन कब बचपन से ही एक गृहणी का रूप ले लेता है.. समझ ही नहीं आता.. उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुस्तकों का ज्ञान मिलता है.. और बाहरी सीख भी मिलती चलती है.. पर बचपन में जो बीज दिमाग़ में जम जाता है.. आगे चलकर वही नन्हें पौधे से पेड़ बन जाता है।

हम अपनी बेटियों को भाषण अपने पैरों पर खड़े होने का देते ज़रूर हैं.. लेकिन वास्तव में गृहणी जीवन ही उन्हें अपनी और आकर्षित करता है.

आज समाज में बेहद बदलाव आ गया है.. आज जेब में अपना पैसा महत्व रखता है.. वो ज़माना बीत से गया है.. जब पत्नी पति की ज़िम्मेदारी होती थी.. आज यह सब कौन समझता है..

आज बेटी यों का स्वालम्बन बहुत ज़रूरी है.. कितना ही अच्छा परिवार क्यों न हो.. बिटिया को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता..

आइये! कुछ बदलाव लाने की कोशिश करते हैं.. नन्ही कलियों को चूड़ी और बिंदी का आकर्षण न देते हुए.. माहौल को उनके लिए भी कंधे से कंधा मिलाने वाला बनाते हैं।

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