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लूडो

Ludo

” हम्म….! दो!”।

” चल! अब तेरी बारी!”,।

ये..! छह! खुल गई!”।

छह या एक पर गोटी का खुलना ही खेल को जीतने का अहसास हुआ करता था। और तो और खेल की शुरुआत में कौन से रंग की गोटियाँ पसंद करनी हैं! ये भी सोचना होता था.. लूडो की गोटियों के कलर भी लकी, या फ़िर unlucky बना रखे थे.. हमनें।

हमारा सेलेक्शन तो अक्सर ही हरे रंग गोटियों का हुआ करता था।

बीच में हमें बच्चों संग लूडो खेलने का बड़ा ही भूत सवार हुआ था। समय मिलते ही, किसी न किसी को पकड़ कर लूडो खेलने में वयस्त हो जाया करते थे।

लूडो की गोटियाँ दौड़ाने में जो मज़ा है. वो और किसी काम में नहीं है। और गोटी काटने पर तो ख़ुशी ही निराली मिलती है।

लूडो खेलने के बाद गेम जीतने पर तो ख़ुशी में और चार-चांद लग जाया करते हैं।

अनगिनत लूडो tournaments जीते हुए हैं, हमनें घर में।हाँ! पर कई बार तो घर जाते-जाते अंत में गोटी कटने का दुःख भी सहा है।

पूरी मेहनत से गोटी को अंत तक लाओ! और फ़िर वो कट जाए.. तो दुःख की ही बात है।

कभी-कभी तो देर तक कोई भी गोटी नहीं खुलती.. ये भी लूडो का निराला ही नाटक है।

छह! छह! पाँच या फ़िर छह! छह, और कोई नंबर साथ में.. बात बनती चली जाती थी।

छह! छह! छह! ये सबसे ही ज़्यादा गज़ब होता था.. जब खिलाड़ी का छोटा सा मुहँ बन.. chance ही गोल हो जाया करती थी।

कुछ भी कहो! बच्चों संग बच्चा बन हमें लूडो से मस्त आजतक कोई भी खेल नहीं लगा।

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