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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड तेरह

sneh yatra

शीतल तीन गिलासों में व्हिस्की डाल कर बर्फ से भर लाई है। मेरा प्यासा मन उन गिलासों में जा डूबा है। एक ही घूंट में मैं सारा गिलास पी जाना चाहता हूँ ताकि मजा आ जाए। अंदर का दाह धुल जाए और अनभोर में उगती वासना को मैं भूल जाऊं!

“चियर्स! चायर्स!” इन बोले शब्दों के साथ साथ हमने अपने गिलासों को लड़ा दिया है।

“मैं तो हर रोज अखबारों में कैंप का ही हाल पढ़ती रही हूँ।” शीतल ने उसी विषैली मुसकान के मध्य से कहा है जो पल भर पहले मुझे चोंट रही थी।

“अच्छा! काफी कुछ निकला है।” सोफी ने स्थिति को सुगम बनाने के उद्देश्य से आश्चर्य प्रकट किया है।

“देखना चाहती हो?” शीतल ने सोफी को महज एक प्रतिद्वंद्वी जैसी अहमियत देकर पूछा है। आवाज में न कोई शालीनता है न कोई लगाव।

शीतल मेरे ऑफिस के टेबिल की दराज में से टाइम्स ऑफ इंडिया की दो कॉपियां खींच लाई है जिनमें स्नेह यात्रा का जिक्र है।

“सबसे पहले – दि मोस्ट सैक्सी पार्ट ऑफ इट, कहकर शीतल ने भगवान द्रुमलता का नग्न चित्र हम दोनों के सामने रख दिया है।

शीतल हम दोनों को इस तरह घूरती रही है जैसे हमारे चेहरों पर थूक कर किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही हो। उसकी आंखों में एक चमक भरी है और उससे ग्लानी टपक रही है। वह सिर्फ इर्ष्या के वशीभूत है वरना तो वह खुद भी इस काम में पीछे रहने वाली नहीं है।

“हाय-हाय कितने लोग तड़प गए होंगे इस सीन पर। भगवान शब्द किसी ने पढ़ा ही नहीं होगा, लोग तो सिर्फ द्रुमलता का स्मरण करते रहे हैं।”

“लोगों की धारणाएं ..” मैं आक्रोश में शीतल की ओछी हरकत पर उबल पड़ा हूँ।

“लेकिन इसमें गलत क्या है?” बात काट कर सोफी ने पूछ लिया है।

“सब कुछ नया है, मेरी जान! हिन्दुस्तान में ये बेशर्मी पहली बार उभरी है!”

“जो कॉलम में लिखा है क्या वो भी पढ़ा है?” मैंने पूछा है। मैं अभी भी क्रोध से भरा हूँ।

“लोग फोटो देख कर कॉलम पढ़ना ही भूल जाते हैं।” शीतल का जवाब है।

“तो ये लोगों की गलती है।” मैंने कहा है।

“और ये गलती भी कितनी हसीन है ..?” शीतल हंस पड़ी है।

मैं और सोफी तनिक सहम गए हैं। शायद जन साधारण का भी यही मत हो। शायद लोग हमारे विचार समझ ही न पाते हों और हो सकता है हम समय से पहले पहल कर रहे हों – आदि शंकाएं हम दोनों को डराती रही हैं।

“तुम्हारे फोटो तो वास्तव में शानदार हैं! देखो दलीप – जो इस स्वतंत्र चेता दल के अगुआ हैं – वो हैं दलीप, एक करोडपति और वो भी हिप्पी की सज्जा में।” शीतल ने मेरे इस फोटो को चूम लिया है।

“क्या लिखा है?” मैंने शांत होते हुए पूछा है। मैं जानता हूँ कि क्रोध के सहारे मैं शीतल से जीत नहीं पाउंगा।

“लिखा है – एक कुंवारा युवक, करोड़पति एक नई खोज में निकला है। उसकी खोज ये देखो ..।” शीतल ने मुझे सोफी का फोटो दिखाया है। सोफी गैरिक अल्फी और रुद्राक्ष की माला में बहुत मोहक लग रही है।

सोफी ने भी अपना फोटो देखा है। सोफी का मुख मंडल किसी अज्ञात आपदा से सजग सा हो उठा है। मैंने सोफी के नयनाभिराम में तैरते शब्दों को पकड कर वाक्य में जोड़ा है – लव इज सुप्रीम!

“ये फोटो दिखाना!” कहकर मैंने शीतल से वो अखबार झपट लिया है।

मैं अपने टेबिल पर गया हूँ। फुर्ती से ब्लेड निकाला है। अखबार के पेज पर छपा सोफी का वो फोटो काट लिया है। वापस आ कर शीतल को अखबार वापस करते हुए पूछा है – थैंक्स फॉर द फेवर! मेरे स्वर में अजीब सी भत्सरना भरी है।

सोफी इस क्रिया कलाप पर मन्द-मन्द मुसकुराती रही है। उसे ये सब बहुत अच्दा लगा है – ये मैं उसके खिले चेहरे से जान गया हूँ। शीतल पर उलटी प्रतिक्रिया हुई है!

“लोगों का मत है – तुम्हें इन लफड़ों में नहीं पड़ना चाहिए।” शीतल ने मुझे सुझाव दिया है।

“ठीक है!” कहकर मैं सारी व्हिस्की अंदर उड़ेल गया हूँ।

जैसे जीवन का कड़वा घूंट पी कर देखा है मैंने! एक अजीब सा आनंद मिला है – समाज के झूठे आडंबरों को झुठलाने में और उघाड़ कर बताने में कोई आत्म तोष मेरी पीठ ठोकता रहा है। अंदर से आत्मा कायल नहीं हे पाई है क्योंकि सारी सच्चाई वहीं से तो उगी है।

“तुम्हें अब बचपना छोड़ देना चाहिए।” ये शीतल की दूसरी दलील है।

शीतल इस तरह नाटक कर रही है जिस तरह कोई हमदर्द हो, मंगेतर हो, मैं उसका कोई दल्ला या गली का शोहदा लफंगा होऊं और वो यहां की दादी मां हो जो मुझे सोफी के साथ में जलील करके सोफी से काट देना चाहती है। बिना पूछे उसने मेरा गिलास फिर भर दिया है। मुझे नाक तक पिला कर सोफी को उगल देने को कह रही है। मैं ये सब जान गया हूँ।

“मुझे पालम जाना है!” सोफी ने मांग की है।

सोफी मेरा साथ छोड़ देना चाहती है – मुझे यों अकेला किसी प्रेत के साथ रहने को कह रही है – लेकिन क्यों?

“गाड़ी खड़ी है। ड्राइवर छोड़ आएगा!” शीतल ने कहा है।

“ठीक है!” सोफी ने मान लिया है और उठने को हुई है।

मैं गिलास में छपी दो प्रतिमाएं देख रहा हूँ। एक के हाथ में मदिरा है और दूसरी के हाथ में अमृत का प्याला। एक वासना में चूर – मदहोश है तो दूसरी बर्फ जैसी सफेद आभासे आसक्त। एक फांस रही है तो दूसरी बचा रही है। सदियों से सोई मेरी वासना जागरूक होती है। मैं इस वासना के पुतले से जूझ जाना चाहता हूँ। खड़ी शीतल को घसीट कर बैडरूम में ले जाने को मन आया है। सोफी को चले जाने से न रोकने का मन आया है। उजाले में गद्दे पर तकियों से सधे शीतल के शरीर का अवलोकन जैसे गिलास में छपा है! उसका आग्रह, होंठों के रचाव और वक्षों के उभार मुझे अंधा कर रहे हैं। सोफी चलने को तैयार है। उसने रकसैक उठा लिया है।

“ठहरो!” मैं गरजा हूँ। “मैं तुम्हें छोड़ने चलूंगा!” कहकर मैंने शीतल को जीत लिया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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