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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड पंद्रह

sneh yatra

पालम पर खड़े-खड़े मुझे अकेलापन खाए जा रहा है। सुबह के चार बजे हैं। मैं परिचित प्राकृतिक स्वस्थ स्थितियों से भी आज जुड़ना नहीं चाहता हूँ। बे मन सा उदास खड़ा हवाई जहाजों से भरा रन वे इस तरह देख रहा हूँ जैसे कोई बगुलों से भरा मरुस्थल हो और ये बगुले किसी अनाम मौत पर स्यापा करने एकत्रित हुए हों! कितना अकेला हूँ मैं …? एक आह निकली है और जहाजों की गर्राहटों में जा मिली है।

मैं सीधा घर चला आया हूँ। नौकरों को तो मेरे आने की आशंका ही न थी अत: वो चौंक पड़े हैं और एक अजीब भगदड़ मच गई है। शंकर दा पल भर मेरे सामने आंखों में प्रश्न भरे खड़े रहे हैं और मैं इन प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ सो जाना चाहता हूँ!

“कोई पूछे – कह देना मैं यहां नहीं हूँ!” कह कर मैं सो जाने का प्रयत्न करने लगा हूँ।

दिल्ली बहुत दिनों के बाद लौटा हूँ अत: रह रह कर कई जाने पहचाने ठिकाने और यार दोस्त भुला नहीं पा रहा हूँ। पता नहीं क्यों मैं उनसे अपने बारे में लोगों का मत जान लेना चाहता हूँ। शीतल और बानी की धारदार नजरें अब भी मुझ में चुभ रही हैं।

इतनी गहरी नींद सो कर जगा हूँ कि दिल दिमाग आस्वति बोध से भर गया है। वही उछल कर हर कठिनाई को कूद जाने की उमंग फिर से भर गई है। मैंने लेटे-लेटे डायल पर कई नम्बर घुमा दिए हैं।

“हाय हीरो! कब आए? रुकोगे? जरूर मिलना!”

“यार! जोरदार पब्लिसिटी की है! तेरा कैंप क्या रहा – इमेज बना गया!”

“भाई अबकी बार हम भी कैंप मिस नहीं करेंगे चाहे जो हो। वो द्रुमलता – बाई गॉड क्या गजब है? और वो कैबरे की बीट क्या चीज है ..”

“तुम आ गए? लम्बी उमर जीओगे प्यारे! बस तुम्हारी ही बात हो रही थी। जरूरी काम है सीधे चले आओ!”

जिस से भी बात हुई है वहीं कुछ गूढ़ अर्थों वाले तथ्य उभरे हैं। कोई खुश है, कोई नाराज है तो कोई खिल्ली उड़ा कर मुझे हताश करना चाहता है। लगा है मैं दुनिया को अब समझने लगा हूँ – हर बात का सार खींच कर जान लेता हूँ कि उसका संकेत किधर है।

“गुसल लग गया है छोटे मालिक!” शंकर दा ने सूचना दी है।

मैं शंकर दा की आंखों में घूरता रहा हूँ। शंकर दा अपनी गलती खुद महसूस कर सकपका कर बोले हैं – अर .. मल्लब मालिक जबान अटक गई है!

मैं तनिक हंसा हूँ और ठीक बाबा की तरह अपार गरिमा समेटे, कंधे पर तौलिया खोंसे और स्लीपर घसीटते बाथरूम में चला गया हूँ। बाथरूम की सज्जा मुझे मोह रही है और नदी तथा तालाब के खुले किनारे से वह किस तरह भिन्न है बताने का यत्न कर रही है। मैं बेहद प्रसन्नचित्त हो कर हल्के गरम पानी के टब में लंबा पसर गया हूँ। हल्का सेक, एकांत और टब में उभरती भीनी सुगंध शरीर के साथ-साथ मन को भी फूल सा हल्का किए दे रही है। आंख मूंद कर मैं अपने मिलन और विछोह में अंतर नापता रहा हूँ। सोफी की बात याद हो आई है – यहां लाइब्रेरी, रीडिंग रूम तथा हॉस्पीटल बन जाए तो ..? मोह ने मुझे जकड़ कर वायदे से पीछे खींच लिया है।

“इतना भव्य प्रसाद तोड़ोगे? इससे बाबा का नाम जुड़ा है – जानते हो?” एक आवाज ने मुझसे सवाल किया है।

सवाल को अनुत्तरित छोड़ कर मैं टब में डुबकी लगा गया हूँ। मोह के समक्ष ये पलायन, ये समर्पण खला तो जरूर है, एक कमजोरी भी महसूस हुई है पर इसे कुचल पाने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाया हूँ।

आंखों को पलकों के पर्दे में ढांप कर भी मैं अपने इस भव्य भवन का फोटो देख पा रहा हूँ। दूर से किला जैसा, अंदर से किसी मॉडर्न गृहस्ति के लिए बना और तपती दोपहरी में भी अंदर से एक दम ठंडा ये घर मुझे बाबा की बेशकीमती धरोहर लग रहा है। पता नहीं क्यों मैं आज स्वयं बाबा बन कर अनुभव कर रहा हूँ कि न जाने मेरे बच्चों को ये सब कैसा लगेगा?

“अगर हॉस्पीटल और लाइब्रेरी बनवा भी दी तो कैसा रहेगा?” एक जटिल प्रश्न मैंने फिर दोहराया है जिससे अचानक बाथ टब का गुनगुना पानी खौल उठा है। मैं बाहर दक्षिण दिशा के दरवाजे से दवाइयों की गंध से भरे, नर्सों की खटपट से सजग और रोगियों की कराहों से आहत अस्पताल में घुसने का प्रयत्न करता लग रहा हूँ। इन रोगियों की कतारों में मैं कोई अपना ढूंढ लेना चाहता हूँ, किसी भयानक रोग का नाम जान लेना चाहता हूँ जो किसी मेरे अपने को सता रहा हो। सभी सफेद बेड शीटों और लाल कंबलों में लिपटे रोगी किसी धुंधलके में अपना चेहरा छिपाए हैं और मैं मात्र उनकी कराह सुन कर सुन्न सा पड़ गया हूँ!

बिल्डिंग का छपा फोटो दो भागों में विभक्त हो कर भी जुड़ा है। इसे अस्पताल और लाइब्रेरी बनने में बीच का भरा अंतर फाड़ देना होगा। यानी मंदिर को मिटाना होगा तभी कोई ऊंची दीवार रोगियों की ऊंह-कूंह और दवाइयों की बेधक गंध रोक पाएगी ताकि लोग बेदखल हो चिंतन कर सकें!

“तो क्या मंदिर टूटेगा?” मैंने अपने ही अंदर-अंदर इस अग्नि पिंड जैसे प्रश्न को घुमाया है।

बाबा का शांत और प्रतिक्रिया विहीन चेहरा उभरा है। मैंने यही सवाल उस चेहरे पर लाद कर तोलना चाहा है। जी आए सो करो – कह कर वही सरल मुसकान फैल गई है। एक विरक्त भाव, एक कटा सा लगाव बाबा को कहीं दूर वैराग्य में लपेटता मुझे नजर आ रहा है।

“ये क्या करा रहे हो दलीप?” मां ने डांटा है। “पूजा पाठ का मतलब तुम लोग कहां जानो? क्या सिखाते हैं तुम्हें स्कूल में?” मां का वही पुराना प्रश्न है।

“अंग्रेजी!” मेरा भी पुराना उत्तर स्वयमेव आ कर गले में अटक गया है।

हां! अंग्रेजी स्कूल में पढ़ कर इन मंदिर शिवालयों का महत्व हमने जाना ही कब है! बाबा एक पहेली जैसे बने पूजा करते रहे और मैं किसी विपक्षी की तरह मन ही मन समय नष्ट करने की बात सोच ये जान लेना चाहता रहा ..

“शंकर दा! ये मंदिर तुड़वा दिया जाए तो?” मैंने नाश्ते पर पूछा है।

“मंदिर तोड़ दिया जाए तो?” मुंह फाड़े शंकर दा किसी अज्ञात संकट की संभावना करते रहे हैं।

शंकर दा अब भी मुझे छोटा मालिक ही मानते हैं। यों डर से मालिक कहना चापलूसी है या मुझसे मोह है – इसके सहारे ही वो यह चापलूसी संवरण कर जाता है।

“नहीं नहीं! छोटे मालिक मंदिर मत तुड़वाना। अशुभ बात होगी ..” कांपते शंकर दा का शरीर टूटे पत्तों की तरह चरमरा गया है।

“अब तो ये टूटेगा शंकर दा!” मैंने स्पष्ट में कहा है।

शंकर दा की आंखों में अचानक आंसू भर गए हैं और जारो-कतार हो कर रोती आंखें भगवान से मुझे माफ करने को कह रही हैं। और मैं हूँ कि सोफी के मुसकुराते चेहरे को पास खींच लेना चाहता हूँ।

“तुम्हारे लिए, तुम्हारे कहने पर, सिर्फ प्यार के पहले कदम पर ही ये कदम उठा रहा हूँ। प्यार त्याग है तो देखो कितना हसीन है ये त्याग!”

अपनी खुशी से मिलकर ही मैं शंकर दा के गम के आंसू पी पाया हूँ। इससे ज्यादा प्रतिरोध की आशंका मुझे नहीं है क्योंकि मां जानती हैं कि मैं जिद्दी हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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