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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड चौदह

sneh yatra

“मैं भी चलूं?” शीतल हमारा पीछा नहीं छोड़ना चाहती।

“नहीं!”

“क्यों?” शीतल ने कमान जैसी भौंहों की प्रत्यंचा खींच कर पूछा है।

“इसलिए कि …” मैं रुका हूँ।

“कबाब की हड्डी …?”

“हां!”

“पर डार्लिंग अब ..” कहकर शीतल ने अजीब अभिनय किया है।

“शट अप! यू ब्लडी ..! गैट आउट ..” मैं हांफने लगा हूँ। शीतल तनिक सहम गई है। “चंदन सिंह!” मैं फिर से गरजा हूँ।

“जी साब!”

“इन्हें धक्के मार कर बाहर निकाल दो!” हुक्म दिया है मैंने।

“जी साब!” कह कर चंदन सिंह ने शीतल को घूरा है।

“मैं चली जाती हूँ!” शीतल ने पिटे आत्म सम्मान को बटोरते हुए कहा है।

“चंदन सिंह!”

“जी साहब!”

“आइंदा कोई भी मेरे ऑफिस या बेडरूम में नहीं आना चाहिए! वरना ..” कड़क स्वर में ही मैंने धमकाया है उसे।

“जी साब!” चंदन सिंह के अंदर एक ऐंठन सी पैदा हुई है।

शीतल सीढ़ियां उतर रही है। मेरा क्रोध अभी भी शांत नहीं हो पा रहा है। मैंने बार पर जा कर गिलास भरा है। सोफी ने मुझे रोका है।

“संयम रक्खो दलीप!” बहुत ही बर्फ जैसी ठंडी और मोहक आवाज में सोफी ने मुझे समझाने का प्रयत्न किया है।

“कोई लिमिट भी होती है यार!” मैंने मजबूरी बताने का असफल प्रयत्न किया है।

“उसकी अपनी लिमिट है। उससे आगे ..”

“ठीक है! आइल हैव नो ब्लडी कंसर्न!” मेरा रोष शनै-शनै उतर रहा है और मैं सोफी को अपनी सफाई देना चाहता हूँ।

“चलो! देर हो रही है।” सोफी ने आग्रह किया है।

मैं कार को तेजी से भगाता रहा हूँ। गाहेबगाहे कोई पागल ट्रक तो कोई आगे से आती कार ही मात्र ट्रैफिक सड़क पर मिला है। सोफी ने कई बार अनु को लेकर बात करना चाहा है पर मेरा मन ही नहीं हुआ। लगा है – मन मैं हर स्त्री के प्रति कोई न कोई प्रतिकार भर गया है। शीतल की कुटिलता और मोह पाश दोनों बेहद घातक लगने लगे हैं और मैं डर सा गया हूँ। पता नहीं क्यों एक के बाद दूसरी लड़की मेरी जान से न जाने क्यों चिपक जाती है?

“धन और मान का लोभ आदमी को कहीं तक भी गिरा देता है।” सोफी ने मुझे शांत करना चाहा है।

“और ये सेक्स?”

“इसका लोभ कभी संवरण भी हो जाता है पर धन का लोभ ..?”

सोफी रात के अंधेरे में अतीत की खोई कुछ परछाइयां ढूंढती रही है। गंभीर आवाज में उसने कुछ इस तरह कहा है जिस तरह किसी धन लोलुप का अभी-अभी उसके साथ साक्षात्कार होकर चुका हो। कुछ चूक खट्टी स्मृतियां उसे अंदर तक दंश दे गई हैं।

हम दोनों अपने-अपने विचारों और शंकाओं से मल्ल युद्ध करते रहे हैं और कार फासले को तय करती रही है।

“सोफी ..!”

“हां दलीप!”

“मेरा शीतल के साथ ..” मैं हिचका हूँ।

पता नहीं क्यों मुझे लगा है कि शीतल जो धारदार स्थिति बना गई है उसे मुझे ही काटना होगा – जी कर ही उसे पीना होगा!

“मैं सच कहता हूँ मैंने उसे छूआ तक ..” फिर प्रयत्न करके कह पाया हूँ।

“मैंने तुम्हारे अतीत के बारे में कुछ नहीं पूछा है। जानना भी नहीं चाहुंगी!”

“क्यों?”

“अतीत सिर्फ याद करने के लिए होता है!” बड़े ही सपाट ढंग से सोफी बोली है।

“यूं तो मेरा संबंध .. अन्य ..” मैं सहारा पा कर तनिक खुला हूँ।

“जानती हूँ दलीप! बस भी करो ..!” कह कर सोफी फिर किसी आंतरिक दाह से जा जूझी है।

अब मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि सोफी के अंदर गमो का अथाह सागर भरा है। उसे प्रतिक्रिया पी जाने की आदत है जिसके सहारे वो सब कुछ छुपा जाती है। लेकिन ये छुपाव, ये घुमाव कितना घातक हो सकता है – मैं सोचे जा रहा हूँ।

“मैं तुमसे कुछ भी छुपाना नहीं चाहता!” एक अधपके प्रेमी की तरह मैंने सोफी से कहा है।

हम दोनों एक दूसरे को देखते रहे हैं। मैं सोफी से ऐसे ही कुछ स्पष्टता उगलते वाक्यों की आशा करता रहा हूँ पर वो नहीं खुली है। आंखों की गहराइयों से साफ जाहिर है – वो कहीं और जाकर उलझ गई है।

“शायद मैं तुम्हें कुछ भी नहीं बता पाऊंगी!” हारी सी आवाज है उसकी।

“लेकिन क्यों?” मैंने भी जैसे सब कुछ जानने की मांग सामने रख दी है।

“प्लेन छूट जाएगा!”

“तो कल सही?”

“नहीं दलीप! अभी नहीं!” कहकर सोफी साफ नाट गई है।

प्लेन जा रहा है। मैं अब सोफी से पृथक हुआ खड़ा हूँ। वो यात्रियों की कतार में शामिल है और मैं तमाशबीनों की भीड़ में मिल गया हूँ। सोफी का सूटकेस चेन पर चढ़ कर चल दिया है। अब सोफी भी सकरे मार्ग से गुजर कर खुले रनवे पर निकल जाएगी – अकेली। मैं छत पर जा चढ़ा हूँ ताकि समूचा दृश्य आंखों में भर लूं और उसे एक अनुभूति बना कर दिल दिमाग पर छाप लूं!

सोफी का विदा मांगना भी मूक है। एक अत्यंत शांत विदाई! आंखों से ही कुछ कहती एक विदाई है जिसमें वायदा कम और आशा का अंश ज्यादा है। हां! अब सोफी की आशा में बिना किसी वायदे के ही जीना होगा!

“कब लौटेगी?” मैंने जैसे आशा के सहारे ही किसी वायदे को ही बांधना चाहा है।

“क्या पता?”

“क्यों ..?”

“तुम आना! आओगे न?” एक सपाट या शिष्टतावश आग्रह नहीं है बल्कि सच्चाई है – मैं जानकर भी कह नहीं पाया हूँ।

“हां! मैं आऊंगा। मिलोगी?”

“जरूर!” कहकर हम बिछुड़ गए हैं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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