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स्नेह यात्रा भाग एक

sneh yatra

“कहां जा रहे हो?” भारी-भरकम आवाज में बाबा ने पूछा है।

स्वर बाबा के कमरे से उठकर शीशे की तहों को छानकर और अन्य अनगिनत रुकावटों को पार करके मुझ तक पहुँचा है। इस स्वर में आज मुझे बदलाव का आभास हुआ है। शायद इसमें इतनी गरिमा, उतना अधिकार और बिसात आज नहीं है जितना पहले कभी हुआ करता था। मैं मुड़कर खड़ा हो गया हूँ। मेरी आंखें अदृश्य बाबा के आकार खोज रही हैं। मन में एक अजीब सा अहम भर गया है। पहली बार मुझे अपने बढ़ते कदम रोक लेने पर आक्रोश खा रहा है। कोई कह रहा है – तू चल – रुकता क्यों है? पर मैं रुक गया हूँ।

बाहर खड़ी कारों में भरे – खचाखच दोस्तों ने मेरी अनुपस्थिति पर जोर जोर से हॉर्न बजाना आरम्भ कर दिया है। वो फिएट बानो की है, खटारा ऐमबेसेडर शैल की है और मेरी अपनी मर्सिडीज भी बोल पड़ी है। ये शोर मुझे छोटे छोटे टुकड़ों में विभक्त किए दे रहा है। हॉर्न बजने के बीच बीच शोरगुल में सभी जानी पहचानी आवाजों का सम्मिश्रण है। मैं इन सब से मिलने को लालायित हो उठा हूँ। पर बाबा को जवाब दिए बिना एक कदम उठाना भी संभव नहीं लगता।

“जी मैं ..” मैं फिर अटक गया हूँ। पहली बार लग रहा है कि मुझे अब इस प्रश्न के नए उत्तर खोजने होंगे। अब बाबा शायद पुराने उत्तर पा कर क्रोध से मुझ पर बरस पड़ेंगे। अनुमति मिलेगी या ना कह देंगे – एक संदेह है जो मुझे सटक जाना चाहता है। लेकिन आज से पहले ये संदेह कभी भी सामने क्यों नहीं आया? इसी ऊहापोह में बाबा ने बाहर आकर मुझे निहत्था घेर लिया है। सरसरी निगाहों से वो अपनी आदत के अनुसार मेरा ऊपर से नीचे तक निरीक्षण कर गए हैं। लेटेस्ट प्रिंट की सिली रॉयल टेलर्ज की कमीज के लम्बे लम्बे कॉलर सामने भालों की तरह मेरे बचाव के लिए तने हैं। कमर में बंधी चौड़ी लाल पेटी मेरे कर्मठ होने का सबूत है। लम्बे लम्बे कंधों पर टिके बाल शैम्पू में नहा कर और भीनी कॉमफ्रेश की खुशबुओं में सने महक रहे हैं। पैंट की काट-छांट चतुराई से की गई है ओर मैंने इसे खुद डिजाइन देकर सिलवाया है। मेरे गले में लटकता लॉकेट न तो किसी संघ का प्रतीक है ओर न ही किसी धर्म से वास्ता रखता है। ये केवल एक चार्म बना हंसता रहता है। अब मुझे विश्वास है कि बाहर इंतजार में खड़े सभी दोस्तों ने मेरे इस बनाव-सजाव की भूरी भूरी प्रशंसा करनी है। पर अब बाबा क्या कहेंगे – मैं नहीं जानता।

बाबा शेव करके चुके हैं। अब उन का गरम पानी लग गया होगा। ओर फिर ..! सारे नित्य नियम की क्रिया पूजा पर आ कर रुक गई है। वही अचकन-धोती या चूड़ीदार पायजामा या कभी-कभार चौड़ी मोहरी के पुराने पैंट को बाबा पहन लेंगे। पता नहीं नित्य प्रति इसी पुराने परिधान में बाबा कैसे रम जाते हैं? अपने आप को इस विचार से बांध कर मैं बाबा के प्रश्न का उत्तर तो अभी भी नहीं दे पाया हूँ।

“चुप क्यों हो?” बाबा ने जैसे मुझे बोलने पर विवश किया है।

“जी! मैं पिक्चर देखने जा रहा हूँ।” मेरी जबान पिक्चर के नाम पर अटकी रह गई है।

“कब लौटोगे?” बाबा ने पहली बार आज ये सवाल पूछा है। पुराने सवाल आज नहीं दोहराए हैं – पैसे दूँ, गाड़ी के ड्राइवर को बता दिया था ओर क्या नाश्ता खा लिया है – इत्यादि इत्यादि!

“जी! कह नहीं सकता!” कहकर मैंने गर्दन झुका ली है।

जब ऊपर देखा है तो बाबा अंदर जा रहे हैं। लगा है – उन्हें इससे आगे जानने की आवश्यकता नहीं है। और हो भी सकता है कि वो मुझे मुझसे ज्यादा जानते हों। एक बात मैं अब तक जान पाया हूँ कि बाबा बहुत जानते हैं! सांस गिन कर बाबा आदमी का इरादा पहचान जाते हैं। शकल देख कर आदमी की गहराई नाप देते हैं और दो बातों में दूध का दूध और पानी का पानी छान कर अर्थ और तथ्यों को घी और मक्खन के रूप में पा लेते हैं। तभी तो बाबा ये सब पा गए हैं! बाबा की कुशाग्र बुद्धि, अनुभव और संपत्ति बेजोड़ हैं। उनको हर बात को तौलना और उसकी एक अच्छी खासी मीमांसा करना होता है। मां के लिए इनकी बात किसी पारखी के कहे शब्द होते थे।

सब कुछ भुला कर मैं चल पड़ा हूँ।

“वो निकला – चंदा सूरज!” शैल ने भावावेश में कहा है।

“हाय रे चंदा! चल तू निकला तो!” अपनी जबान को तोड़-मरोड़ कर बानो ने मुझे स्थितप्रज्ञ बना दिया है।

मैं दरवाजे के बीचो बीच खड़ा हो गया हूँ। कोट को कॉलर से पकड़ कर मैंने कंधे पर खींचा है। शरीर का संतुलन दोनों पैरों पर संभाल कर मैं किसी होने वाले मुकाबले के लिए संभल गया हूँ।

“स्माइल प्लीज!” कौशल ने तुरंत मेरा चित्र खींच लिया है।

“साला एकदम हीरो लगता है।” शैल ने चुटीली मुसकुराहट देकर वाक्यांश बोला है जिसका अर्थ और तात्पर्य मैं सहज स्वभाव के सहारे बचा गया हूँ।

“एक दम हीरो – दलीप दी ग्रेट!” बानो ने जैसे उसी वाक्य का तार खींचा है और उसे लंबा कर दिया है। लेकिन मेरी ये व्याख्या मुझे छू तक नहीं पाई है – पता नहीं क्यों?” नए नए चेहरे हैं। नए नए दोस्त बनते जा रहे हैं और मेरी संज्ञा भी कुछ नए नए आयाम ग्रहण कर रही है। अपने दोस्तों में मुझे एक प्रलोभन हमेशा ही हाथ पकड़ कर खींच लाता है। और वो है – नयापन, बोलने का नया चलन, पहनने का नया अंदाज, हर बात में नए और पुराने की टांच मारना, हर अर्थ को नए दृष्टिकोण से देखना, तौलना और चाहे वो फिर गलत हो या सही पर अपनी तर्क शक्ति से उसे हल्का कर देना और फिर सब से बढ़ चढ़ कर नए संबंध जोड़ लेना!

देखते देखते मैं भी बदल गया हूँ। मेरे सभी संबंधों की परिभाषा भी बदल गई है। यही कारण है कि दोस्तों की कतारों में कोई दुश्मन भी आकर छुप जाए तो आभास तक नहीं होता। मैं भी अपलक अपने सभी जमा मित्रों को देख रहा हूँ। लड़के हैं – हमउम्र। लड़कियां भी हैं – हमउम्र और प्रसन्न मना रूपसियां और एक से एक विदुषी। सभी मेरे चारों ओर भीड़ बन कर घिर आते हैं। इस चौखट को लांघने के बाद ही अकेलापन छट जाता है। कमरे की घुटन का धुआं सा मुक्त हंसी और अल्हड़पन के खेल खिलवाड़ों के साथ सुखद पुरवाया बन जाता है। मैं तो इस चुहल में बंध जाना चाहता हूँ, रम जाना चाहता हूँ और भूल जाना चाहता हूँ कि मैं – एक धनी बाप का इकलौता बेटा हूँ। जैसे ही मुझे अपने आप का बोध हो जाता है वैसे ही मैं इस परमहंस स्थिति से कट कर अलग जा गिरता हूँ।

“क्या हो गया बे!” शैल ने मेरा भ्रम और विचारधारा दोनों तोड़ दिए हैं।

“लेट हो जाएंगे प्यारे!” गुमनाम ने मजाकिएपन में कह कर दांत दिखा दिए हैं।

“प्रोग्राम क्या है?” मैंने पूछा है। मेरी आवाज में अजीब सा एक अधिकार है।

अब मुझमें एक विश्वास जग गया है और तभी मैं सब कुछ जान लेने के बाद कुछ करना चाहता हूँ!

“यारों की तमन्ना ..” कुछ सोच कर शैल ही बोला है।

“यानी कि जो सबकी राय है – वही प्रोग्राम है!” रिंकू ने सफाई बताई है।

“वही राय तो हम जान लेना चाहते हैं!” मैंने तनिक बन कर कहा है।

“जान लेनी है तो ले लो न!” बानो ने मजाक मारा है।

सभी ने एक स्वर में अट्टहास के साथ ठहाका मारा है। मैं अचानक पीछे देखने लगा हूँ। मुझे डर है कि कहीं बाबा बाहर न चले आएं। बानो तो अभी भी मुझे ही घूरे चली जा रही है। मेरे चेहरे पर हंसी में मिश्रित कुछ हीन भाव आ गए हैं। मैं जानता तो हूँ कि बानो खुले दिल की एक लड़की है लेकिन ..

“चलो बे! जायजा लेना छोड़ो और फॉलो मी फ्रेंड्स!”

शैल ने अपनी गाड़ी स्टार्ट की है ओर पवन वेग से बाहर निकल गया है। मैं भी झटपट अपनी मर्सिडीज की सीट पर जा गिरा हूँ। कार हल्की सी गुर्राहट के साथ चल पड़ी है। मैं शैल के पीछे पीछे चल रहा हूँ। यूं पीछे चलना मेरे उसूल के एकदम विपरीत है। लेकिन पता नहीं क्यों शैल हमेशा ही पहल कर जाता है?

यही एक बात है जो मुझे अच्छी नहीं लगती।

मेजर कृपाल वर्मा

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