मैं ज्यादा छानबीन करने के मूड में नहीं हूँ। चुपचाप एक अध-फटे से थैले में कुछ गुप्त पोटलियां अपने हाथों में भिचे चला आया हूँ।
भीड़ टूट पड़ी है। अपनी अपनी खुराक लेकर सभी लौट गए हैं। अब एक बहुत बड़ा संयम स्वत: ही लौट आया है। मैंने भी अपनी तीव्र इच्छा को कत्ल कर दिया है और मन ही मन शपथ ली है कि अब कभी भी मैं कैपसूल नहीं खाऊंगा। उस उड़ान में क्या मजा जिसमें पर ही न हिलें।
पूरी रात की कमाई कुल पैंतीस बैठी है। मैं श्याम को गालियां देना चाहता हूँ। पर रुक गया हूँ क्योंकि वो अपनी मजबूरी मुझे पहले ही बता चुका है। अब सोच रहा हूँ – जब तक कहीं और ठिकाना नहीं मिलता चलने देता हूँ।
खाकर सो रहे थे तो दरवाजा खनक उठा। श्याम ने घबराकर मेरी ओर देखा। उसकी निगाहों से साफ जाहिर था कि कोई खतरा था। पुलिस थी – अब चाहे उसकी तलाश में हो या मेरी में। मैं भी तनिक सकपकाया था लेकिन श्याम ने मुझे इशारे से छुपने के लिए कह दिया। मैं दबे पांव ऊपर टांड़ पर जा लेटा। महीन रेत की तह कुछ तो कपड़ों से लिपटी और कुछ उड़ कर नाक में भर गई। मैं सांस रोके आगंतुकों को देखने की गरज से चुपचाप लेट गया हूँ।
दरवाजा खुला। तीन चार नेता गण अंदर पधारे। हाथ जोड़ कर नमस्कार और हल्का सा सत्कार जब बीत गया तो औपचारिकता के साथ श्याम ने विनीत स्वर में पूछा था।
“कैसे पधारे आप लोग?”
“सुना है वो .. वो लड़का यहां रहता है?”
“कौन लड़का?” श्याम ने भोलेपन से पूछा है।
“वो वाला – जिसने राशन की दुकान लुटवाई थी।”
“जी ..?” श्याम ने बन कर कहा है। “आप गलत जगह पर पहुंचे हैं।”
“हम ठीक जगह पर हैं बरखुदार। हम पुलिस लेकर गिरफ्तार कराने नहीं आए। हमें तो उसकी मदद चाहिए। हम हड़ताल और धरने की सोच रहे हैं।” उनमें से एक व्यक्ति ने बात साफ की थी। “ये हैं शीतल काका। शहर के माने जाने नेताओं में से हैं। ये उससे मिलना चाहत हैं।”
“बड़ी अजीब बात है। मान न मान ..”
“मैं आ गया मेहमान!” कहता हुआ मैं हनुमान जी की तरह ही लंका दहन करने कूद पड़ा हूँ। कपड़ों पर लगी रेत की परत मॉडर्न पेंटिंग बन गई है तथा मेरे मुंह पर भी कई टीका टिकली लग गए हैं। बरबस ही अट्टहास की हंसी फूट पड़ी है। हम सभी हंसे हैं। मैं तो जी खोल कर हंसा हूँ। कपड़े झाड़ कर जब बैठा हूँ तो शीतल काका अपलक मुझे घूरते पकड़े गए हैं।
“मुझे तुम में भविष्य का उज्ज्वल नक्षत्र उदीयमान होता दिखाई दिया है, दलीप! इसलिए मैं चलकर आया हूँ ..”
शीतल जी ने सीधा मसका मारा है। हो सकता है ये कथन सत्य भी हो पर मैं तो ऐसी बड़ाइयों से ऊबा पड़ा हूँ। अत: बेरुखी से ही कहता हूँ – मतलब की बात पर आ जाइए नेता जी।
“हमें जनता के लिए लड़ना है। कुछ यूनिवर्सिटी के छात्रों का सहयोग मिल जाए तो हमारी शक्ति दूनी हो जाएगी।”
“मिल जाएगा। लेकिन मुझे अपने पूरे प्रोग्राम से अवगत करा दीजिए।”
“मुझे यही उम्मीद थी बेटे! रमा जी इन्हें प्रोग्राम की एक कॉपी दे दीजिए।”
रमा जी – जो मरियल किस्म के हैं और चश्मा चढ़ाए हैं, मुझे एक दो पन्नों की किताब पकड़ा देते हैं। सरसरी निगाह से देखने के बाद मैंने कहा है – शीतल जी इसमें तो बहुत सारे परिवर्तन करने होंगे।
“इससे ज्यादा गुंजाइश नहीं है। हिंसा भड़क जाएगी अगर ..”
“अगर डरते हो तो बाहर क्यों निकलते हो? हो जाए हिंसा – बहने दो खून – तो क्या? शीतल जी! ठंडक से काम नहीं चलेगा। गर्मी चाहिए गर्मी!”
“देखो दलीप ..”
“शीतल जी! अगर मेरा सहयोग चाहिए तो ..”
इसके बाद एक सप्ताह में शीतल काका और उनकी कार्यकारिणी गोष्ठी के कर्मठ सदस्य मनोयोग से काम में जुट कर पूरी तैयारी कर चुके हैं। शहर में भय की एक लहर फैल गई है। जनता भी कुछ होते देखने के लिए उत्सुक है। कुछ ने बुराइयां की हैं लेकिन युवा पीढ़ी थोड़ी कम भयभीत है।
हर जगह पोस्टर लगे हैं। हर दीवार पर कुछ न कुछ लिखा है और इसकी प्रतिक्रिया बाजार के हर दुकानदार के चेहरे पर छपी है। पान की दुकानें आम जनता के वातावरण के लेनदेन में कुछ ज्यादा ही सक्रिय हैं।
शाम को सब कुछ गहराई से नाप तोल कर मैं और शीतल जी एक दूसरे से जुदा होते हैं। मैंने राजन को सुबह सात बजे का समय दे दिया है। लड़के और लड़कियों के हुजूम कल सड़कों पर उमड़ पड़ेंगे। पहला भाषण भी मेरा ही होगा। फिर शीतल जी बोलेंगे और फिर ..
एक कार आकर दरवाजे पर रुकी है। ड्राइवर उतर कर सीधा मेरे पास आया है। वह एक कार्ड मुझे थमा देता है। साथ में कहता है – साहब आपका इंतजार कर रहे हैं।
“चलो!” कहकर मैं गाड़ी में बैठ गया हूँ। मुझे भय इसलिए नहीं है कि यह सब कुछ मेरा जाना पहचाना है।
कार से उतर मैं दरवाजे से अंदर जाता हूँ। बैठक बेजोड़ है। वर्णन करना इसलिए अच्छा नहीं लगा कि मैं स्वयं भी तो ऐसे ही रहन सहन को लात मार कर निकल भागा हूँ।
“आओ बेटा! मुद्दतों से नहीं मिले!” चाचा रतन चंद बड़े ही चाव से उठ कर मिले हैं।
पास बैठी रीता ने मेरी ओर मुस्कान फेंकते हुए कहा है – हैलो प्रिंस!
मैं तनिक चिढ़ गया हूँ। ये बेतुके सर्वनाम मुझे अब खलने लगे हैं। साधारण व्यक्ति बनने में मुझे ज्यादा आनंद आता है।
“बेटा मैंने तुम्हें जरूरी काम से बुलाया है। रीता मसूरी जा रही है। देहली में गर्मी ने तो हद उड़ा रक्खी है। लेकिन रीता कहती है कि बिना दलीप के मैं नहीं जाऊंगी। बस मैंने भी तुम दोनों का ट्रिप अरेंज कर दिया है।”
“लेकिन चाचा जी! मैं नहीं जा पाऊंगा!” मैंने रूखे स्वर में कह दिया है।
मेजर कृपाल वर्मा