अनमना सा मैं बानो के पीछे पीछे चल रहा हूँ। मुझे अपने कृत्यों पर तनिक शर्म आ रही है। बानो की बात से मैं सहमत नहीं हूँ। न जाने क्यों हमेशा मन अपने आप को दोषी मानने लगता है और कहता है – ये अमर प्रणय नहीं है दलीप, ये तो वासना है। वरना सोचो यों आलिंगन बद्ध दो प्राणी एक पल बाद ही विभक्त मन लिए साथ साथ कैसे चल सकते हैं? बानो के स्वर में क्या कहीं आदर है तुम्हारे लिए?
बानो के कहे कर्कश शब्द एक बार फिर मेरी दाड़ के नीचे किसकिसाने लगते हैं। बानो जो चाहे अनाप-शनाप बक जाती है। ये आज के समाज का कायदा बनता जा रहा है जिसमें आदमी और औरत के समान अधिकारों की चर्चा है। लेकिन एक दूसरे की भर्त्सना करना और अनादर करना तो सर्वथा अनुचित ही है।
मैं बानो की ओर नहीं देख पा रहा हूँ। ठीक इसी तरह कौशल, गुमनाम, शैल और अन्य सभी साथी अपने अपने हंसों के जोड़ों से पृथक हुए लग रहे हैं। मुझे विश्वास है कि ये सभी मेरी तरह ही एक झेंप और अविश्वास समेट लाए हैं। अब मुझे समझ आ गया है कि भगवान बुद्ध अकेले ही क्यों ज्ञान की खोज में निकले थे।
शाम का सूरज ढल रहा है। लेकिन हमारे अतृप्त मनों की प्यास अब और भी भरभरा उठी है। हल्की सी भूख लगी है और चुपचाप कहीं एकांत में बैठने को मन कह रहा है। लेकिन मैं पहल नहीं करना चाहता। गुमनाम ही बोल पड़ा है – रंग नहीं जमा बड़े भाई के सिवा कोई देगा ही नहीं इस दर्दे-दिल की दवा!
सभी हंस पड़े हैं। ये हंसी तनिक भिन्न लगी है मुझे। बानो कहीं दूर देख रही है। शायद उसे अब अपने किए पर पश्चाताप हो रहा है या कि जो वह मुझसे कह गई है उसपर खेद है। शैल भी कहीं अन्यत्र ही विचर रहा है। उसका जोश और उबाल भी ठंडक में बदल गया है। हारे थके से हम सभी कारों में आ बैठे हैं। बानो जान मान कर मेरे पास नहीं बैठी है। कारें सरपट दौड़ रही हैं और मैं एक अनजान ठिकाने पर जा रहा हूँ। ज्यादा पूछताछ करना मैंने उचित नहीं समझा है।
कारों को सड़क के आजू-बाजू लगा कर सभी उतर गए हैं। शैल ने चारों ओर चोर निगाहों से देखा है। तनिक घबराहट उसके चेहरे से टपक रही है। इससे सिद्ध हो रहा है कि हम किसी गलत ठिकाने पर जा रहे हैं। मैंने कोई आपत्ति नहीं की है। जब यारों के साथ निकला हूँ तो वापस कैसे चला जाऊं या इनका साथ छोड़ूं भी तो कैसे?
कई कमरे, कई बरांडे और कई बार सीढ़ियां उतर कर हम एक गुप्त सुरंग जैसे स्थान में पहुंच गए हैं। बीच के सुनसान और वीरान रौरव को चीर कर हम कहकहों में उतर आए हैं। जो हवा बाहर थी वो यहां नहीं है। एक अजीब धुआं सा कमरे की छत पर छाया है। मेरा अब दम घुटने लगा है। एक अजीब सी दुर्गंध भरी है। सभी आगंतुक हंसे जा रहे हैं पर मेरा मुंह हंसने को नहीं खुल पा रहा है। मुझे लगा है – ये सभी एक बनावटी हंसी हंस रहे हैं।
आगंतुकों में देसी विदेशी, धनी और कंगाल, काले और गोरे तथा लड़के और लड़कियां सभी सम्मिलित हैं। अगर इन सब में कोई समानता है तो वो है उम्र की। सभी जवान हैं जो दुनिया के गमों को दुत्कार कर खुशी की तलाश में यहां चले आए हैं। लेकिन देखने से तो लगता है कि ये सभी खुश हैं।
“हाय हैंडसम!” एक विदेशी लड़की ने आकर मेरा हाथ पकड़ लिया है। मैं तनिक भी झेंपा नहीं हूँ और मैंने तपाक से उत्तर दिया है – हैलो बेबी!
बानो ने मुझे घूरा है। बानो जैसे रेत के कगार से नीचे खिसक गई हो और अब उसने उठने का प्रयत्न ही छोड़ दिया हो – अपनी असहाय आंखों से अपलक मुझे घूरे जा रही है। एक विद्वेष है जो उसके अंतर में भरता ही चला जा रहा है। मैं खुश हूँ। जो मेरा अपमान बानो के हाथों हुआ था शायद उसी का उत्तर मैं उसे दे देना चाहता हूँ।
“मेरा नाम है – जूली!” उस विदेशी लड़की ने परिचय दिया है।
“मुझे दलीप कहते हैं।” मैंने अनमने से जवाब दिया है। जूली के बदन और मुंह से अजीब सी गंध रिस कर मेरे नथुनों तक पहुंच गई है। मैं भाग खड़ा होना चाहता हूँ पर जूली ने मेरा हाथ नहीं छोड़ा है।
“वॉन्ट टू गो फॉर ए ट्रिप?” जूली ने इस अंदाज में पूछा है कि मैं अंदाज नहीं लगा पा रहा हूँ कि वो कहना क्या चाहती है। लेकिन गुमनाम मेरी मदद के लिए पहुंच गया है।
“पंछी नया है। रिलैक्स .. बेबी ..!”
गुमनाम के हल्के से इशारे पर जूली वापस जा रही है। उसके कदम कुछ अस्थिर हैं और शरीर का संतुलन भी काबू में नहीं है। जूली के अस्त व्यस्त बाल, कपड़ों में पड़ी हजारों हजार सिलवटें और अजीब सी मादक गंध से किसकिसाता शरीर मुझे आधा हिन्दुस्तानी और आधा अंग्रेजी लगा है। मुझे कुछ जमा नहीं है। लेकिन मेरी आंखें जाती जूली को छोड़ नहीं पा रही हैं। अचेत सा मैं अपनी स्थिति का ज्ञान ही भूल गया हूँ।
“अबे! हो गया गुम – घोंचू?” गुमनाम ने हल्का सा धक्का मार कर मुझे सचेत किया है।
“आगे बढ़! पहले चरण धोक ले बड़े दा के! उसके बाद ही पहला सबक मिलेगा!” गुमनाम मुझे आगे घसीट रहा है। उसके कहे वाक्य का मतलब मैं चित्त-पट्ट लेटे इन युवक-युवतियों में खोज रहा हूँ। सभी खुश हैं – खिलखिलाकर हंस रहे हैं लेकिन इन्हें न किसी आने वाले का ध्यान है और न जाने वाले से लगाव।
“बड़े भाई! ये है आपका यार दलीप!” गुमनाम ने मेरा परिचय बताया है।
“हेलो दलीप! दलीप दी ग्रेट ..” बड़े भाई ने अपना हाथ आगे किया है।
मैंने हाथ नहीं निकाला है। चुपचाप मैं बड़े भाई को घूरता रहा हूँ। दिमाग में ठुसे अतीत की यादों में से कुछ कतरे उतर कर एक वाक्य जैसा बन गया है – इतने दिनों के बाद ..?
“पहचान लिया न?”
“क्यों नहीं?”
“तो फिर मिला हाथ ..!”
“ऊं .. ऊं हूँ!” अड़ियल बन कर मैं खड़ा ही रहा हूँ।
“क्यों बे ..?”
“मैं नहीं भूला हूँ श्याम! मिलना है तो ..”
हम दोनों की आंखें एक दूसरे की आंखों में जा फंसी हैं। अचानक हम दोनों एक दूसरे से लिपट गए हैं। गुमनाम बिना पूछे गुम हो गया है।
“देखा ..! कहां आ कर मिले?” मैंने श्याम से जैसे अपना इनाम मांगा है।
“यही तो मैं सोच रहा हूँ।” श्याम ने गंभीर स्वर में कहा है। खुशी के तुरंत बाद उसपर एक उदासी छा गई है।
“क्या हुआ बे! तू खुश नहीं तो मैं चला जाता हूँ!”
“नहीं बे! तू नहीं समझेगा ये सब मेरे यार!” अचानक आंसू भर आए हैं श्याम की आंखों में। “मैं न जाने कब से तेरे पास आने को तड़प रहा हूँ। अब आस छोड़ दी थी तो तू आ मिला।”
“देख श्याम! अगर तूने लड़कियों जैसी एक्टिंग की तो ..” मैंने उसे डांटा है। मुझे अपना पुराना अधिकार याद जो हो आया है।
“अच्छा ले! पी जाता हूँ ये आंसू भी। अब तक तरे सामने रोने को दिल था लेकिन अब ..”
“लगता है – तू नहीं बदला है!”
“नहीं दलीप! मैं बहुत बदल गया हूँ। पर तुम से आज तक भेंट नहीं कर पाया।”
“क्यों ..? तू लौटकर आया क्यों नहीं?”
“इसलिए दलीप कि ..” श्याम चुप हो गया है। वह सच्चाई को उगलना नहीं चाहता।
“सच बोल दे वरना मैं चला जाऊंगा!” मैंने श्याम को धमकाया है।
“फिर वही धमकी? अच्छा सुन! इसलिए आने की हिम्मत नहीं पड़ी कि तेरे गिर्द तेरे पापा का पहरा रहता है जहां कोई भी कंगाली बगल में दबाए पहुंच ही नहीं सकता।”
“ये तुझसे किसने कहा?”
“मेरे मन ने!”
“तेरा मन तो साले चोर है। तू भी चोर है और ..” मैंने आपने भावावेश को अब रोक लिया है।
“हाहाहा! मान गए बे साले! चल और दे गालियां! साले मैं तरस गया था इन गालियों के लिए! कसम ले ले आज तक किसी ने नहीं दीं ऐसी गालियां!”
मेजर कृपाल वर्मा