शहर की सड़कें अंधाधुंध ट्रैफिक से भरी हैं। हर चौराहे पर पांच दस मिनट हरी बत्ती के इंतजार में गंवा देना खल जाता है और सामने खड़े पुलिस के आदमी पर रोष आने लगता है। गुमनाम इसे ‘सरेआम बदतमीजी’ कह कर पुलिस के आदमी का कार्टून गाड़ी की विंड स्क्रीन पर खींचने लगता है। जितनी कारें आगे हैं उतनी ही पीछे हैं – एक आश्चर्य की तरह!
“अब देखो और सोचो! कौन कहता है कि देश में पैट्रोल का अकाल है। सब साले चोर हैं।” गुमनाम एक अजीब सी चुप्पी को काटने की गरज से बोला है। वह मेरा स्वभाव इस कदर पहचान गया है जिस तरह कि डॉक्टर मरीज का रोग पकड़ लेता है। मेरे दोस्त मेरी तुलना कोका कोला की बोतल से करते हैं। ‘शेक इट’ मेरी कुंजी है। जब भी मेरे विचारों में बौखलाहट मचती है मैं चुप नहीं रह सकता!
“इस चोरी का इलाज है कहां?” मैंने आहत स्वर में पूछा है।
“गुमनाम जानता है प्यारे! संक्षेप में समझ लो – हम सब चोर हैं।”
“सजा भी बोलो!” मैंने हुक्म दिया है गुमनाम को।
“नहीं बोलूंगा!”
“लेकिन क्यों?”
“तुम सब लोग मुझे पागल समझ लोगे! सभी तो कहते हैं कि ..”
गुमनाम अटक गया है। उसके अंदर भी एक घुटन भरी है। शायद हम सब के अंदर भी अंशतः या पूर्णतया ये घुटन विद्यमान है। ओर लगता है हम सब इसे पचा जाना चाहते हैं और भूल जाना चाहते हैं। हर बार प्रश्न यहीं आकर खड़ा हो जाता है – पहल करे तो कौन?
“बकोगे या ..?” मैंने गहरी आत्मीयता जता कर गुमनाम को डंक मारा है। गुमनाम अपने आप में विश्वास खोज ही रहा था कि बानो टपक पड़ी थी।
“दलीप प्लीज डोंट बोर अस!”
यह एक आग्रह था जो उड़ती पतंग की डोर काट गया था। मैं और गुमनाम दोनों एक साथ ऊंचाइयों से गिर पड़े हैं। एक अधूरी सी बात घमासान ट्रैफिक में गुम हो गई है। मुझे बानो पर तनिक सा रोष आ गया है!
“आई एम सॉरी दलीप!” बानो ने सब कुछ भांप कर माफी मांग ली है। मैं जानता हूँ कि आज माफी मांगना हमारे समाज में एक सभ्य प्रथा बन गई है। चाहे गलती हो या नहीं पर सॉरी बोलना सभ्य होने का प्रतीक मान लिया गया है। न जाने क्यों मैं आज भी इस औपचारिकता पर झुंझला कर रह जाता हूँ।
दिन तनिक गरम हो रहा है। देहली में वैसे भी कौन सी कम गर्मी पड़ती है। अल्पना में नमक हराम लगी है। शैली ने इशारों में ही टिकट का बंदोबस्त कर डाला है। वैसे तो हाउस फुल का बोर्ड हिन्दी ओर अंग्रेजी दोनों में गेट पर लटका है। फिर भी कुछ सभ्य लोग दौड़ भाग में लगे हैं। कुछ छोकरे ब्लैक में टिकट बेचने का प्रयत्न कर रहे हैं। हम सब कुछ देख रहे हैं, जान रहे हैं पर होंठ भिचे हैं। हर आदमी ‘मैं क्यों मुसीबत मोल लूं’ की आड़ में छुपा स्वतंत्र भारत में आजादी का अनुभव कर रहा है।
अपनी ज्ञान वृद्धि की गरज से मैंने गुमनाम को टहोक कर पूछा है – टिकट कैसे? बोर्ड पर तो हाउस फुल लिखा है!”
“आज के जमाने में बोर्ड पढ़ना ..”
“बड़ी बेवकूफी है!”
“नहीं बे ..”
“अबे तू तो साफ बोल!” मैंने रोष में गुमनाम को झकझोड़ दिया है!
शैल अब हम लोगों के लिए कुछ खान पान का बंदोबस्त करने में व्यस्त है। अब कहीं भी मेरी राय लेना उसे उचित नहीं लगता। वह चाहता है कि मैं कुछ न पूछूं और एक दाना खाने के जुर्म में कबूतर की तरह उसके कृत्यों की बलैयां ले ले कर उसे ही सराहता रहूं। इसे ही परखने के लिए मैंने कहा है – थैंक यू – दि रिसोर्सफुल!
शैल ने मुझे मुकाबले में उतरे एक प्रतिद्वंद्वी की तरह एक नए अंदाज में परखा है। उसे अब भी संदेह है कि मैं ये प्रशंसा किसी अज्ञात लक्ष्य पूर्ति के हेतु कर रहा हूँ। लेकिन मेरी बात को और भी सबल बनाने की गरज से गुमनाम ने भी कहा है – शैल! चाहे तो सब कुछ पेश कर सकता है।
इस बात पर रिंकू तनिक मुसकुराया है। बानो ने होंठ काट लिए हैं और शैल पूर्ण रूपेण चापलूसी का हो गया है। गर्वोन्नत स्वर में शैल हल्केपन से बोला है – मसका मारने की जरूरत नहीं दोस्तों, आइसक्रीम भी आ रही है!
“वाह से वाह! बेटा हो तो ऐसा हो!” कौशल ने फिर से मजाक मारा है।
सभी जोरों से कहकहे लगाकर हंस पड़े हैं। मैं भी हंसा हूँ। लेकिन मेरे दिमाग ने शैल का उथलापन नाप कर बताया है कि वहां टिकने वाली कोई बात नहीं है। शैल सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। वह कोरा महत्वाकांक्षी है। उसे तो अपने लक्ष्य तक याद नहीं हैं। छोटी छोटी प्रशंसाओं और प्रसन्नताओं का प्रभाव उस पर लंबा होता है और उनकी प्रतिक्रिया भी उसके चेहरे से पढ़ी जा सकती है। फिर मैं एक एक करके सारे दोस्तों का विश्लेषण करने लगता हूँ। लगा है – सब में मैं ही श्रेष्ठ हूँ। मुझ में उन सब से एक गुण ज्यादा है। वह कौन सा गुण है ये पता लगाना अभी तक संभव नहीं हो पाया है।
दिल्ली की गर्मी से दिन खिलता जा रहा है। अब सड़कें तक पिघलने लगी हैं। कार गरम हो जाएगी, गरम गरम हवा गात सेंकने लगेगी और शरीर से अनवरत पसीना रिसता रहेगा! अत: हम सब आइसक्रीम चाटने लगते हैं। ठंडी जबान से बातों को शीतल बना और लालायित मन से हल्का हो कर परिहास करने लगते हैं। चारों ओर बिखरे हर गूढ़ रहस्य पर शहर का लेप चढ़ रहा है। कोई भी पारखी ये अंदाज नहीं लगा सकता कि मैं अब भी इन सब से जुदा हूँ।
पिक्चर की शुरु वात हुई है। एक दम गहन विषय की समीक्षा सी सामने आ कर रुक गई है। शैल ने रिमार्क कसा है – वही साली पुरानी कहानी!
मैं जानता हूँ कि गहन विषय की विवेचना जैसी कोई चीज शैल नहीं उठा पाता! फिर मैं सोचने लगता हूँ कि किस तरह वो हमेशा हलकापन लिए यों जीवन के आघात झेल जाता है। क्यों नहीं पल भर सोचता कि ..
देखते देखते सारी समस्याओं की कतार मेरे सामने खड़ी हो जाती है। शैल भाग गया है। लेकिन कब तक भागेगा? जब ये उथलापन चुक जाएगा और अल्हड़पन का पाथेय भी बीत जाएगा तब शैल कैसे बदलेगा और मैं कैसे बदलूंगा और गुमनाम किस तरह चुप्पी के साथ हो लेगा? यही तो एक बदलाव की भावना है जो आजकल मेरे आज बाजू आ खड़ी होती है। है कोई शक्ति जो मुझे बाध्य करने लगती है – कि मैं ये सब छोड़ कर अब बदल जाऊं! लेकिन क्यों और कैसे बदल जाऊं? ये सब अभी तक समझ नहीं लगा है। मेरी नई संगत का मोह मुझे अभी तक बांधे है। बाबा को मेरी संगत से डर लगता है। लेकिन मैं उनकी तरह अकेला कैसे रह सकूंगा?
लगा है परदे पर हमारी ही टोली का चरित्र चित्रण हो रहा है। तभी तो शैल बीच बीच में बोल पड़ता है। ये भी उसकी एक आदत है। मेरी अभिरुचि कथानक में जा सिमिटी है। मुझे अभिनय भी अच्छा लग रहा है। मुझे लग रहा है जैसे बाजार से भाग कर समस्याएं सिनेमाघर में आ छुपी हैं ताकि घिरे अंधेरे में अंधे हुए हम सब उन्हें देख कर भी न देख पाएं।
मध्यांतर में फिर आइसक्रीम आ गई है। कोका कोला की बोतलें उफान ले ले कर गुप्प की आहट के साथ खुल गई हैं। लो लिम्का भी आ गया है और ऑरेंज फेंटा भी पहुंच गया है। कॉफी की गंध हमें बुला तो रही है लेकिन हम सब दोस्त अपनी अपनी पसंद में मस्त हैं! हर कोई अपनी अपनी पसंद के पीछे तर्कों का एक पूरा अध्याय जोड़े है। भिन्न भिन्न दिशाओं में चलना, एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करना, अलग अलग पसंद और बित्त समान योगदान मुझे छलने लगते हैं!
मेजर कृपाल वर्मा