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स्नेह यात्रा भाग एक खंड दस

sneh yatra

श्याम मुझे घर तक पहुंचा गया है। अब भी मेरे पैर शरीर का बोझ संभालने से आनाकानी कर रहे हैं। मैं अपने बेडरूम तक पहुंच ही जाना चाहता हूँ। मेरा पूरा बदन एक हडकल के हाथों में बिंधा-बिंधा टीस रहा है। पूरा घर शांति में डूबा निस्तब्ध सो रहा है। मैं खुश हूँ कि सिर्फ मुझे अकेले को ही अपनी इस स्थिति का ज्ञान है।

लेकिन जैसे ही मैंने बरांडा पार किया और चौक से गुजरने को हुआ एक गहरी निश्वास छोड़ने की प्रतिक्रिया मेरे कानों ने सुन ली है। मैंने भारी भारी पलकें तनिक ऊंची उठा कर हल्के अंधेरे में घूरा है। बाबा दीवार से सट कर खड़े हैं। उनका शरीर तनिक सा हिला है ओर फिर जहां का तहां मूर्तिवत चिपक गया है। वो कुछ भी नहीं बोले हैं।

मेरा पूरा का पूरा नशा उतर गया है। शरीर में एक भयानक सी भावना घुस बैठी है। एक चोर ग्रंथि मन से आ चिपकी है। बाबा को बताने के हेतु मैं लाखों सही बहाने ढूंढ लेना चाहता हूँ। पहली बार बाबा से कुछ छिपाने का मन हुआ है ओर मुझे ये भी आभास हो रहा है कि पहली बार बाबा ने भी मुझ पर शक किया है। शायद हम दोनों अब एक दूसरे का विश्वास खो बैठे हैं। बिस्तर पर पड़ा पड़ा मैं नींद की बजाए बाबा में विश्वास खोजे जा रहा हूँ। “उन्होंने मुझ पर शक किया – क्यों?” एक प्रेताकृति वाला प्रश्न है जो रह रह कर मुझपर सवारी कर रहा है। जहां मैं विश्व को एक सूत्र में बांध कर लौटा था वहीं अपने और बाबा के बीच फटती दरार को नहीं रोक पा रहा हूँ। अब मैं बाबा से छिटक कर अलग हो जाना चाहता हूँ – एक स्वतंत्र व्यक्तित्व, एक जिम्मेदार आदमी ओर एक अनुशासन का अगुआ।

“रात तीन बजे कहां से लौटे थे?” नाश्ते पर बाबा ने सीधा सवाल दाग दिया है।

वह समय तीन बजे का था – मुझे तो अभी पता चला है। बाबा ने दो एक बात औपचारिक रूप में भी नहीं कही हैं और अब गंभीर हो कर अपने सवाल का जवाब पाने को कटिबद्ध हैं। बाबा के आधे से ज्यादा सफेद बाल, लाल लाल दमकता चेहरा, रौबीली आवाज और रईसी अंदाज सभी इतने प्रबल हो उठते हैं कि सामान्य आदमी उनके आगे झुकते ही बनता है। पर मैंने न जाने क्यों आज पलक भी नहीं झपकी है। मैं सीधा बाबा की आंखों में घूरे जा रहा हूँ। मन ने कई बार कहा है – झूठ बोल दूं। एक मोहक और सुगम रास्ता है – झूठ का जिसे हर कोई अपना लेता है। पर मैं सच्चाई का मूल्य जान लेने की गरज से बोला हूँ – शाम की रंगीन शाला गया था।

“नशा पत्ता करने?” बाबा ने ऐसे पूछा है जैसे उन्हें मेरी हर हरकत का सही सही ज्ञान हो। जरूर उनका कोई आदमी मेरे पीछे रहा होगा।

“हां!” मैंने संक्षेप में सब कुछ कबूल कर लिया है।

“कैसा रंग जमा?” उसी गंभीर आवाज में बाबा ने फिर पूछा है।

मैं अपना मन साधे हूँ। पता नहीं क्यों आज बाबा के सामने झुकने को मन नहीं कर रहा है। गलती करने के बाद भी न जाने क्यों आज पश्चाताप नहीं हो रहा है।

“खूब जमा!” मैंने उसी निर्लिप्त आवाज में कहा है।

“शर्म नहीं आती कि ..” बाबा आक्रोश में उबल पड़ना चाहते हैं पर रुक गए हैं। संयम की उनमें कमी नहीं है।

“शर्म की क्या बात है! ये भी तो एक अनुभव है।”

“और क्या क्या अनुभव करने का विचार है – हम भी तो सुनें।”

“जो होता जाए – देखते जाइएगा!” एक बर्फ जैसी ठंडी आवाज से मैंने बाबा को आहत कर दिया है। अब उनकी आंखें मुझ पर जमी हैं। मैं टेबिल पर रक्खे छुरी कांटे और नमक दान को देखे जा रहा हूँ। सोच रहा हूँ – अब बाबा नहीं बोलेंगे।

“देखो दलीप! तुम अब बच्चे नहीं रहे हो।”

“ये तो मैं भी जानता हूँ।”

“तो सुनो! तुम्हारी ये हरकतें मुझे भी बदनाम करने में न चूकेंगी! मैंने जो इज्जत, धन और मान कमाया है इसमें मेरे पसीने की गंध आती है। इसे यों बहा दोगे तो मुझे अपार दुख होगा!”

“मैं आपसे अलग हो जाऊंगा और जो भी करूंगा अकेले पड़ कर ..”

“नहीं बेटा! मुझे समझने की कोशिश करो। मैं तुम्हारा भविष्य अंधकारमय बनाने को ये सब नहीं करता रहा हूँ। जो कुछ मैंने किया है – तुम्हारे लिए किया है।”

“तो अब मत करिए! मुझे अब अपने लिए करने दीजिए!”

“रोकूंगा नहीं! पर हैसियत से काम करो!”

“काम का हैसियत से क्या रिश्ता है?” मैं सवाल पर सवाल पूछ रहा हूँ।

“है! एक मालिक का बेटा मालिक ही होना चाहिए!”

“मैं इसमें विश्वास नहीं रखता, पिताजी!” अचानक मुझे लगा है कि मैं बड़ा हो गया हूँ और एक प्रबुद्ध प्रौढ़ हूँ जिस में हर समझदारी विद्यमान है।

“तो तुम जो करना चाहो मुझे बता दो।” बाबा ने हार मान कर हथियार डाल दिए हैं। ये उनका मोह है जो उन्हें झुकने पर मजबूर कर गया है। वरना तो बाबा को मैंने आज तक झुकते नहीं देखा।

“समय आने दो बता दूंगा!” मैंने बात समाप्त करना चाहा है।

बाबा चुपचाप मेरे चेहरे को निहारते रहे हैं। उन्होंने मेरे चेहरे को पहले दिन से आज तक देखा है, हर बदलाव देखा है लेकिन जो आज देखा है वो भी हर बदलाव की तरह अविस्मरणीय रहेगा।

मैं खुश नहीं हूँ। मुझे आशा थी कि एक बार बाबा को बताने के बाद – कि मैं अब स्वतंत्र हो जाना चाहता हूँ, बाबा कुछ सार गर्भित उपदेश देंगे। पर ये सब नहीं हुआ है। बाबा तो चाहते हैं कि मैं सीधा मालिक बन जाऊं और धन दौलत की परिधि के अंदर एक सुरक्षित जीवन जी लूं। बाबा नहीं चाहते कि मुझे दुनिया की कोई भी सर्दी गरमी सताए। पर ये मेरे लिए संभव नहीं है। चाहत और संघर्ष का जो स्वाद है उसी से जीवन सफल होता है। लेकिन बाबा उस स्वाद को खुद चख कर भी नहीं चाहते कि मैं उसके समीप भी जाऊं। उन्हें डर है कि कहीं मैं कहीं चूक न खा जाऊं, गिर न जाऊं क्योंकि अब उनमें उठाने की सामर्थ्य शेष नहीं बची है। जुड़े युद्ध स्थल में कूदने के बाद आश्चर्य की बात ये है कि खून को खून पर भरोसा नहीं है।

मेरे हिसाब से बाबा को कहना चाहिए था – दलीप! अब तुम अपना जीवन जीओ। स्वयं हर बात को घुस कर गहराई तक नाप लो। कर्तव्यनिष्ठ और प्रगतिशील बनो। समाज की बुराइयों से लड़ जाओ क्योंकि तुम्हारा अब जूझने का समय आ गया है। बिना समय नष्ट किए अपने काम से लग जाओ और दुनिया पड़ी है चाहे जो कर गुजरो। लेकिन एक भी ऐसा संकेत मुझे उन से नहीं मिला है। अब एक क्षोभ मुझे खाए जा रहा है। सोचता हूँ कि मुझसे तो श्याम ही अच्छा है जो स्वयं कुछ तो कर पाया है।

मेजर कृपाल वर्मा

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