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स्नेह यात्रा भाग एक खंड चौदह

sneh yatra

“क्यों बेटे? रीता से ..?”

“नहीं चाचा जी! ऐसी कोई बात नहीं है। यहां मुझे जरूरी काम है।”

“देखो बेटे! तुम्हारा इन बेकार के कामों से सरोकार रखना निहायत ही गलत है।”

“और मसूरी जाकर आप की बेटी को खुश करना ..?”

“रीता का और तुम्हारा रिश्ता ..”

“कैसा रिश्ता? मैं किसी रीता को नहीं जानता!”

“शायद तुम नहीं जानते दलीप तुम्हारे बाबा हां कह चुके हैं।”

“तो बाबा से कहिए कि वो शादी कर लें!” मैं क्रोध से उबल पड़ा हूँ।

पता नहीं क्यों धनी और अमीरों के पास बैठने से भी मुझे नफरत होने लगी है। मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि जिस तरह से राजा-महाराजा समाज में लंगड़े हो कर ठोकर खा रहे हैं उसी तरह एक दिन इन मुनाफाखोरों का आएगा जरूर और ये अपंग होकर अपना अस्तित्व खो बैठेंगे। कारण स्पष्ट है – इनके मन में भी भूखे नंगों के प्रति कोई सहानुभूति या कोई सद्भाव नहीं है। इनकी चौखट के अंदर देश की कोई समस्या घुस नहीं पाती। और काला धन पीछे के दरवाजे से बढ़ता ही रहता है।

“बेतुकी बातें मत करो दलीप! शायद तुम नहीं जानते कि रतन चंद की ताकत कितनी है। अगर मैदान में ही आना है तो मेरे साथ मिल जाओ और फिर देखो ..”

“क्या होगा?”

“पैसा! व्यापार! नाम और इज्जत – एक इंसान को और क्या चाहिए?”

“आप को मुबारक हो आपका नाम और काम! चचा हम तो चले ..”

मैं व्यर्थ की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहता। रीता मेरी ओर मद भरी आंखों से देख रही है। एक आकर्षण तो है पर मुझे भद्दा लग रहा है। रीता के साथ साथ अब मुझे बानी, सखी, सांवरी, गीता, नीना और वो सभी लड़कियां जो मेरे पीछे हैं – भद्दी और चीप लगने लगी हैं।

“एक प्याला चाय में तो कोई हर्ज नहीं है, दलीप!” रीता ने आग्रह किया है।

वेटर चाय की ट्रोली ले आया है। खाने के कई पदार्थ भी आए हैं। चमकते कप तथा सौसर मुझे हंस कर दांत दिखा गए हैं। हर माल ही विदेस से आया है ओर अगर चाचा रतन चंद का बस चलता तो खुद की चमड़ी तक को रंगवा लेते, पर ऐसा हो नहीं सकता! मैं बे मन चाय का प्याला पकड़ कर बैठ जाता हूँ।

“दलीप! अगर मैं चाहूँ तो पुलिस को फोन पर बता सकता हूँ कि तुम रंगशाला में ..”

“और अगर मैं चाहूँ तो कल ही आपका पूरा गिरोह गिरफ्तार करा सकता हूँ। या कहिए तो कल बाजार में आपकी इज्जत उछाल दूँ? चचा! धमकी दे कर मुझे मेरा बाप नहीं रोक पाया फिर तुम क्या रोकोगे? अपनी बेटी से कह दो – किसी को भी लेकर भाग जाए, मुझे नहीं चाहिए!”

मैं तेज तेज कदमों से बाहर चला आया हूँ। ड्राइवर ने कार में बैठने का आग्रह किया है पर मैं नहीं बैठा हूँ। मुझे पैदल चलने में मजा आ रहा है। मैं खुश हूँ कि इन धनिकों से मेरे संबंध चटक रहे हैं। मैं तो इनसे भिड़ जाना चाहता हूँ।

रह रह कर मन में होने वाले सुबह की याद आने लगती है!

टॉप का भाषण दूंगा – एक प्रश्न है जो मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है। मैं जनता के सामने बोलने के लिए उन्हीं के मध्य से कुछ पुष्ट बातें चुन लेना चाहता हूँ। दिल्ली को मुझसे ज्यादा शायद ही कोई जानता होगा। हर सड़क, हर बस्ती और हर कालोनी मेरे सामने एक नक्शे की तरह पसर गए हैं। एक ओर भव्य प्रासाद हैं तो दूसरी ओर झुग्गी झोंपड़ियां हैं। एक ओर वातानुकूलित में बैठे उच्चाधिकारी और सरमायादार हैं तो दूसरी ओर गरमी में भुनता मजदूर खड़ा है। एक ओर बेरोजगारी है तो दूसरी ओर काम करने की दरकार ही नहीं है। कुछ लोग एक कपड़ा एक बार पहन कर दूसरी बार नहीं पहनते तो कुछ को जीवन में एक बार ही कपड़े नसीब होते हैं। ये कैसी विषमता है? बस यहीं से मेरे भाषण के चार मुख्य हैडिंग बन जाते हैं – घर, कपड़ा, खाना और काम! कम से कम हर आदमी की ये बेसिक समस्याएं हैं। अगर ये भी नहीं मिलता तो – क्यों? अगर मिलेगा तो कैसे? अगर देश सुधरेगा तो कैसे?

इन्हीं खयालों में उलझा मैं श्याम के ठिकाने पर पहुंच गया हूँ। श्याम मेरे इंतजार में बैठा है।

“अबे! तू रंगीन शाला नहीं गया?” मैंने उसे चौंक कर पूछा है।

“गया था – वापस आ गया!” उसने भर्राए स्वर में कहा है।

“माल नहीं पहुंचा होगा?”

“हां!”

“नशेड़ियों की भीड़ तुझपर कुत्तों की तरह टूट पड़ी होगी?”

“हां भइया, और मैं भाग आया ..”

“अच्छा किया। चल सो जा!” मैंने श्याम की कमर को थपकी दी है।

“मुझे तो डर लग रहा है बे!”

“क्यों ..?”

“कल क्या होगा?”

“वही जो मंजूरे खुदा होगा!” कह कर मैं हंस पड़ा हूँ। मेरी हंसी में भय का नाम नहीं है। अब श्याम भी हंस पड़ा है।

हड़ताल का समा बंधा है। हमने जैसे सत्ता संभाल ली है। पुलिस एक ओर खड़ी टुकुर टुकुर देख रही है। लोग चीख चिल्ला रहे हैं। फिर भाषण हुए हैं। जिस के मन जो आया है उसने वही बका है। असल में कुछ भी काम संभलता नहीं लग रहा है। नफरत के फूटते उद्गार हैं जिससे हम सभी दहला गए हैं। मैंने जब भाषण दिया है तो एक सन्नाटा छा गया है। लोग विमुग्ध हो मुझे घूरे जा रहे हैं। सब से ज्यादा तालियां मेरे स्टूडेंट ग्रुप ने बजाई हैं। कुछ लोगों ने मुझे अभी से अपने निशानों पर चुन लिया है। मैं भी जानता हूँ कि उनका पहला वार मुझ पर ही होगा!

जुलूस में मैं ही आगे हूँ। मैं नारों को जोर जोर से बोल रहा हूँ – सरमायादार – हाय हाय! हक ले लेंगे – हाय हाय! रोटी कपड़ा – हाय हाय!

कितना सत्य उगला जा रहा है – सड़कों पर। गले फाड़ फाड़ कर चिल्लाने का कोई असर होता नहीं लग रहा है। मैं तनिक निराश होता जा रहा हूँ। अचानक ही पीछे से मेरे सर पर लाठियां बरस पड़ी हैं। जमा भीड़ पर भी लाठियां बरस रही हैं। मैं गिर गया हूँ। खून बह चला है। जब मैंने अपने खून को बहते देखा है तो मैं उठ कर खड़ा हो गया हूँ। ललकार कर मैंने कहा है – भाइयों! लड़ जाते हैं इन गुंडों से ..

अब भीड़ मुकाबले में डट गई है। भागते लोग रुक गए हैं। उन्होंने मुड़ कर पत्थर, बोतलें और गालियां सभी चलाए हैं। लेकिन मैं बेहोश होकर गिर पड़ा हूँ।

होश आने पर मैं अस्पताल में हूँ। अब मैं ठीक हूँ। सबसे पहले रीता मुझसे मिलने चली आई है।

“मैं .. तभी तो मैं कह रही थी कि ..” रीता ने मुझे आंखों में देखा है। “अगर मसूरी चले जाते तो ये घड़ी क्यों आती?”

“ये बड़ी ही शुभ घड़ी है रीता जी! ये आपके पिताजी ने ही तो स्वागत कराया है!”

“तुम मुझे गलत समझ रहे हो दलीप! मैं इतना बुरा नहीं बेटे, जो .. अपनों और परायों में अंतर ही न समझूं!” रतन चंद जी ने अंदर प्रवेश करते हुए कहा है।

मेजर कृपाल वर्मा

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