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स्नेह यात्रा भाग एक खंड चार

sneh yatra

संगीत लहरी मर गई है और हम सभी सोफों पर टांगें पसारे दम ले रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ – ये सब तो तृप्त हो चुके हैं। ये कितने भाग्यशाली हैं जो मेरी तरह की किसी घुटन का शिकार नहीं हैं।

“बोर ..! बानो ने चीख कर मेरे विचार का खंडन कर दिया है।

“एक दम बोर ..” सभी दोस्त एक स्वर में चीखे हैं।

मैंने बारी बारी सब को आंखों में घूरा है। एक अजीब सी और अतृप्त कामना उन में भरी है। एक आग्रह है जो धरती पर कहीं भी ठहरने का नाम नहीं लेना चाहता। हम सब के सब उस खुशी के पीछे दौड़ने को आतुर हैं जो अभी तक हमें नहीं मिली है। मैं तनिक खुश हूँ। सोच रहा हूँ कि ये सभी भी मेरी तरह ही किसी मृग मरीचिका के शिकार हैं। मैं भी अब उड़ान भरने को तैयार हूँ। शायद कहीं कोई सच्चा-मुच्चा हल मिल ही जाए – कौन जाने।

“चलें फिर ठिकाने पर?” शैल ने उसी कसैली मुसकुराहट में पूछा है।

“बड़े भाई छह बजने से पहले नहीं मिलते!” गुमनाम ने सूचित किया है।

इसका मतलब मैं यही लगा पाया हूँ कि ये सभी लोग किसी अज्ञात ठिकाने का ज्ञान रखते हैं और मैं उसके बारे में अभी तक अज्ञान हूँ। मेरे चेहरे पर बिखरा ये चोर भाव बानो ने पकड़ लिया है। मेरी ओर उसने अजीब से होंठों का इशारा किया है। मेरे कमजोर मन में एक टीस आकर रुक गई है। मैं तुरंत संभल जाना चाहता हूँ। बानो मुझे असत्य और मिथ्या सी लग रही है। वह मेरे गिर्द जाल फेंक रही है। अचानक मुझे भान होने लगता है कि मैं एक धनी बाप का इकलौता बेटा हूँ ओर बानो ..?

“आईडिया! बुद्धा गार्डन! लैट्स हैव फन फ्रेंड्स!”

शैल के इस आईडिया पर किसी को आपत्ति नहीं है। असल में हम सब एक स्थान पर बैठ कर जल्दी ऊब जाते हैं। हम सब के मन कच्चे और कोमल हैं जो किसी भी स्थान या बात की गहराई को कुरेद कर समझ नहीं पाते। ऊपरी चमक-दमक और हल्का हास परिहास क्षणिक होने के नाते हमें देर तक नहीं बांध पाता। हमारे दिल दिमाग और शरीर की खुराक अब बदल गई है। अंदर जो ऊर्जा अब तक संचित होती रही है अब असर दिखा रही है। मन कुल्हांचें मारने को कहता रहता है और हर बाधा से टकराने को स्वतः ही पैर अग्रसर होने लगते हैं। हर इंसान को चुनौती देकर पछाड़ देने की हिम्मत आ गई है और अब हर पहाड़ राई तुल्य लगता है। अब सवाल ये है कि मैं टक्कर मारूं भी तो कहां? कई बार तो शैल से ही उलझने को मन हुआ है पर अपने आप को दलील दे कर समझाया है – दोस्त लाख अच्छे पर दुश्मन एक भी बुरा।

उछलते कूदते हम सभी लोग बुद्धा गार्डन में जा पहुंचे हैं। प्रकृति के साथ मिल जुल कर बने इस बगीचे में मन अनायास ही रम जाता है। हम सभी जैसे भगवान बुद्ध को झाड़ियों में खोजने जा रहे हों – ऐसा लगता है। बानो मेरे साथ हो ली है। हल्की-फुल्की उलझनें और कटीली झाड़ियां हमारा रास्ता रोक देती हैं। मैं ठोकर मार कर पार निकल जाता हूँ। मैं शायद बानो को अपने मर्द होने का सबूत दे रहा हूँ। मुझे पता नहीं कि शैल, गुमनाम ओर कौशल कहां हैं? कौन किसके साथ गई है मैं ये भी नहीं जानता। इस बात का लेखा जोखा रखना भी मैं उचित नहीं समझता। बानो ने चलते चलते मुझे टोका है।

“चलते ही जाओगे .. या ..?”

“चलने में ही तो मजा आता है। वास्तव में मैं रुकना तो चाहता ही नहीं बानो!”

“ओ डार्लिंग! क्या जवाब पेश किया है।” कहते हुए बानो ने अपने हाथ से अपने होंठों का चुंबन लिया है। यह एक अभिनय है जो बानो मुझे फसाने की गरज से कर गई है। मैं भी जान कर अपने कदम पीछे ले आया हूँ और सोच रहा हूँ ..

“चलते चलते अगर एक पल खुशियां पल्ले पड़ जाएं तो बुरा क्या है?

“कितनी अच्छी घास है!” बानो ने बैठते हुए कहा है।

“बहुत अच्छी!” बानो का अभिप्राय समझ कर मैं साथ बैठ गया हूँ।

अब बानो की आग्रहों से भरी आंखें मुझे सींचने में लगी हैं। मैं भी अब अपने आप को कड़े बंधनों में कसना नहीं चाहता। शायद ये स्वाभाविक है और इसमें दोष या अपराध का लेश मात्र भी अंश शामिल नहीं है। दो प्यासे मन एक दूसरे की प्यास बुझाने का प्रयत्न मात्र करते हैं। सफलता तो दूर की बात होती है लेकिन प्रयत्न तो पहला चरण है। अत: हम दोनों प्रयत्न रत हो जाते हैं ..

“दलीप! आई लव यू!” बानो ने वही पुराना वाक्य दोहराया है।

लेकिन मुझे ये वाक्य पुराना नहीं लगा है। कारण है कि स्थान और परिवेश दोनों ही बदल गए हैं अत: इस वाक्य का अर्थ भी बदल जाता है। बानो घास पर पड़ी है। मैं आधा उसके ऊपर आ पड़ा हूँ। हम एक दूसरे की आंखों में देख रहे हैं। हम एक दूसरे में विश्वास खोज रहे हैं ओर साथ साथ कुछ जान लेना चाहते हैं ..

घास कहीं कहीं हरी है तो कहीं एक दम कड़क जो थोड़ी सी हरकत के साथ ही हमारे राज खोलने पर उतारू हो जाती है। चंद चिड़ियां हमारे आजू-बाजू आ कर बैठ जाती हैं। हमें इनसे डर नहीं लगता। क्योंकि ये प्रणय का अर्थ नहीं जानतीं तथा ये किसी से कहने या सीखने की सामर्थ्य विहीन अज्ञान और अनाड़ी जीव हैं। मनुष्य तो कितना कुछ जानता है – अचानक मुझे आश्चर्य होने लगता है।

“और .. और .. और नहीं दलीप! अब नहीं प्लीज ..!”

बानो कहती रही है। मैं कुछ भी नहीं बोला हूँ। मैं कुछ करता रहा हूँ। बानो ने जो तनिक सी आपत्ति की है मैं उसे स्वाभाविक समझ बैठा हूँ। हम समय का ज्ञान भुला बैठे हैं। शायद इस शांत वातावरण में हमारी आत्माएं रम गई हैं। तभी शायद भगवान बुद्ध ने आत्मज्ञान पाने के लिए कोई विजन स्थान चुना होगा। पर हमें कौन सा ज्ञान प्राप्त हुआ है?

“सेक्स ज्ञान ..!” लपक कर बानो की हल्की जबान कह गई है।

“ये भी कोई ज्ञान है?” मैं झुंझला कर कहता हूँ।

“हां हां! यही तो सच्चा ज्ञान है लेकिन इसकी शिक्षा हम हेय समझते हैं!”

बानो जैसे पूर्ण प्रशिक्षित है ओर अब अपनी बात सिद्ध कर देना चाहती है। मैं अभी भी झिझका-बिदका सा उसे घूर रहा हूँ। बड़ी हिम्मत के साथ मन में भरी ग्लानि को मैं उगल पाया हूँ!

“हमारे समाज में ये सब पाप है – ये एक डूब मरने की बात है ..!”

“तो डूब मरो न!” रोष में आकर बानो ने मुझे लताड़ा है।

चुपचाप हुआ मैं बानो की ओर देखता ही रहा हूँ।

“ये भी शरीर की एक भूख है, एक मांग है और न ये पाप है और न पुण्य! अब समझे मिस्टर डोप चंद!” बानो ने मुझे और भी लताड़ बताई है।

मैं पराजित सा बानो से मार खाता रहा हूँ। जो चंद पल पहले था उसमें तो मैं भी भागीदार था लेकिन अब ..

“पहली बार तो नहीं ..?” बानो ने पूछ ही लिया है।

“नहीं!” मैंने भी एक ईमानदार उत्तर दिया है।

“फिर भी वही पुराना खयाल – जिस गलती को करने को मन बार बार कहे मैं उसे गलती नहीं मानती।”

“लेकिन मैं उसे कमजोरी मानता हूँ – मन की कमजोरी कहो!”

“तो मानते रहो, मुझे क्या!” कहकर बानो उठी है और चली गई है।

मेजर कृपाल वर्मा

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