बात शिक्षा और स्वास्थ्य के विषय की होगी। तो यह समझने से पूर्व की हमारी सरकारें इनके प्रति कितना संजीदा हैं। उसके पहले प्लेटो की एक उक्ति स्मरण हो रहीं है। उनके मुताबिक अगर कोई व्यक्ति शिक्षा की उपेक्षा करता है, तो वह अपने जीवन के अंत तक पंगु की तरह जायेगा। ऐसे में जब ज़िक्र शिक्षा और स्वास्थ्य का हो रहा, तो आज़ादी के सत्तर से अधिक वर्षों बाद लगता तो कुछ यूं है, कि हमारी लोकशाही सत्ता के रणबाँकुरे शिक्षा व्यवस्था को ही उपेक्षित कर दिए हैं। क्या पढ़ाया जाना चाहिए, कैसे पढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए कोई संजीदगी जब लोकतांत्रिक व्यवस्था में दृष्टिगोचर हो नहीं रहीं, तो कहीं यह देश के पंगु बनने की निशानी तो नहीं। शिक्षा और स्वास्थ्य मानव जीवन के दो अहम पहलू हैं। जब तक व्यक्ति शिक्षित नहीं होगा, वह सही-गलत की पहचान करने में असमर्थ होगा। वहीं स्वास्थ्य नहीं रहेगा तो न वह ख़ुद के विकास का वाहक बन पाएगा और न ही देश के विकास का सारथी। तो ऐसे में शिक्षित और स्वस्थ समाज का निर्माण करना एक बेहतर राष्ट्र की आवश्यकता होती है। यहां यह बात भी स्पष्ट होनी चाहिए, बेहतर तालीम और स्वास्थ्य सुविधाएं आमजन को मयस्सर करना रहनुमाई व्यवस्था का कार्य है।
आज के इक्कीसवीं सदी में जब वैश्विक परिदृश्य तीव्र गति से विकास के नए आयाम लिख रहें, उस दौर में हम शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलों में ही काफ़ी पिछड़े नज़र आते हैं। कोई राष्ट्र तीव्र विकास तभी कर सकता है, जब उसकी अवाम को गुणवत्तापूर्ण तालीम मिले और स्वास्थ्य के स्तर पर सुदृढ़ता झलके। हमारे यहां स्थिति यह है, हम आज़ादी के सात दशक बाद भी बेहतर और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जदोजहद कर रहें। हमारे संवैधानिक ढांचे में ज़िक्र है, शिक्षा सभी का अधिकार है, लेकिन शायद यह कागज़ी बातें ही बनकर रह गया है। जो शिक्षा सामाजिक विकास का आधार है। वह अगर अवाम को प्राप्त हो भी रहीं, तो सिर्फ़ प्रतिशत में बढोत्तरी के बाबत। आज की शिक्षा पद्धति इतना लचर बनती जा रहीं, जो न तो मानसिक विकास कर पा रहीं और न ही रोज़गारपरक बन पा रही।
शिक्षा समाज को संजोए रखने के साथ सामाजिक कुरीतियों को दरकिनार करने में महती भूमिका अदा करती है। तो अवाम को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण तालीम उपलब्ध कराना सरकारी तंत्र की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके साथ ही साथ बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध कराना आवश्यक है, क्योंकि कहते हैं न स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। ऐसे में शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों समाज की ज़रूरत है। बात अगर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और सरकारी स्वास्थ्य तन्त्र की करें, तो देश की स्थिति काफ़ी खस्ताहाल नज़र आती है। देश में पांचवीं और आठवीं के बच्चे अपने निचली दर्ज़े की किताब नहीं पढ़ पाते। तो वहीं देश के सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का आलम यह है, कि प्राप्त संख्या में देश में डॉक्टर तक नहीं। फ़िर क्या बात की जाएं। रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स-2017 के मुताबिक देश में सबसे अधिक डॉक्टरों की कमी उत्तरप्रदेश में है। देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर लगभग 3000 डॉक्टरों की कमी है।
वहीं लगभग 2000 के तबक़रीबन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना डॉक्टर के चल रहे हैं। ऐसे में दुःखद स्थिति तो अब ये हो गई है, चुनाव पूर्व भी दावों में भी शिक्षा और स्वास्थ्य का ज़िक्र नहीं हो रहा। अब तो चुनावी चौपाल में बहस का केंद्र दूसरे दल की कमियां गिनाने और धर्म-जाति के नाम पर समाज को बरगलाने का चलन बढ़ रहा। पांच राज्यों में आगामी दौर में चुनाव होना है, लेकिन कहीं से यह आवाज़ मुखर नहीं हो रहीं, उनका मिशन बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना और अवाम को तालीम देना रहेगा। पांच राज्यों में चुनाव है, तो सैंपल के रूप में मध्यप्रदेश की शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में वर्तमान स्थिति है क्या। तनिक उसका डीएनए टेस्ट कर ही लिया जाए। मध्यप्रदेश में अस्पताल बीमार हैं, शिक्षा की हालत का तो ज़िक्र न ही करें तो बेहतर। फ़िर भी सभी दल को फ़िक्र सिर्फ़ सत्ता-सिंहासन की है। 15 वर्षों की स्थाई सरकार रहने के बाद भी आज सूबे में शिशु मृत्यु दर काफ़ी अधिक है। कुपोषण के कलंक से प्रदेश कलंकित तो है ही। साथ में ग़रीबी के मामले में देश में चौथे नंबर पर है। जब सूबे की 20 फ़ीसद आबादी ग़रीब ही है, तो फ़िर प्राइवेट अस्पताल और स्कूल की तरफ़ तो नज़र उठा भी नहीं सकती। तो क्यों नहीं सरकारें बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाएं मुहैया कराने की दिशा में आगे आती हैं। यह बिल्कुल समझ से परे है। अरस्तु ने एक वाक्य कहा है, कि शिक्षा समृद्धि में एक आभूषण और आपदा में एक पनाहगाह है। तो ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य उपलब्ध होना बेहतर राष्ट्र और समाज निर्माण की पहली सीढ़ी है, उसे क्यों नीति-नियंता भूल जाते हैं।
