बचपन से ही कारों में घूमे.. क़िस्मत जो लेकर पैदा हुए थे.. कभी किसी public vechile की सवारी करने का मौका ही नहीं मिला था.. ज़रूरत ही नहीं पड़ी.. या तो कार नहीं तो सरकारी गाड़ियाँ होती ही थीं.. पिताजी अफ़सर के पद पर जो थे..
हमारे साथ के साथी साइकिल वगरैह तो चला कर घूमा करते थे.. पर गिरने के डर से हमने वो भी कभी नहीं सीखी.. बचपन में हमें खेलने के लिए, पिताजी ने एक रिक्शा लाकर दिया था.. उसकी सवारी तो छोटे भाई संग घर में ख़ूब ही किया करते थे।
अब वक्त के चलते हमारा परिवार सहित बसेरा हो गया था.. दिल्ली में! रिक्शों का चलन ख़ूब देखने को मिला था.. बस! पहली बार घर की गाड़ी छोड़ रिक्शे की सवारी मन भा गयी थी।
सच! दिल्ली के रिक्शों में घूमने का मज़ा ही कुछ और है.. सारी सवारी इस रिक्शे की सवारी के आगे फीकी सी पड़ जातीं हैं.. अब तो दिल्ली की सड़कों पर बैटरी वाले रिक्शे दौड़ रहे हैं.. इन में भी घूमने में कम आनंद नहीं आता है.. और किसी के विषय में तो हम क्या कहें!.. पर हमारा मन तो दिल्ली के इन रिक्शों में ही सड़क पर सारी सुविधाएँ होते हुए भी.. पूरा शहर नापने का हो जाता है।