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राम चरन भाग तिहत्तर

Ram Charan

ढोलू एनक्लेव के एक नंबर बंगले के सामने कार रुकी थी। कार के सामने जो व्यक्ति खड़ा था उसे देख कर पंडित कमल किशोर दंग रह गए थे।

“प्रहलाद तुम ..?” पंडित कमल किशोर ने उस व्यक्ति को गहक कर बांहों में भर लिया था। “आज – यहां .. इतने दिनों बाद ..”

“क्यों ..? मैं मिलने भी नहीं आ सकता?” उलाहना दिया था प्रहलाद ने। “खबर लगी थी कि भाभी जी बहुत बीमार हैं! सो तो रहा न गया!”

“हां!” कमल किशोर ने लंबी उच्छवास छोड़ी थी। “राजेश्वरी की बीमारी ..”

“अब ठीक हो जाएगी!” प्रहलाद ने धीरज बंधाते हुए कहा था। “हम से नेह नहीं टूटा न इनका?” प्रहलाद ने पते की बात बताई थी।

दोनों मित्र साथ-साथ चल कर ड्रॉइंग रूम में आ बैठे थे। ड्राइवर ने सामान कार से उतार कर घर के भीतर पहुंचाया था। प्रहलाद नयन विस्फारित पंडित कमल किशोर के ठाट-बाट को ललचाई निगाहों से देखता रहा था। उसे याद था जब वो दोनों मित्र काशी संस्कृत विद्यापीठ के स्वर्ण कुटीर और पर्ण कुटीर में आमने-सामने रहते थे। बीच में एक छोटा बगीचा था जिसमें सुमेद और संघमित्रा घुल-मिल कर खेला करते थे और ..

“ये सब कैसे ..?” प्रहलाद से रहा न गया था तो पूछ लिया था।

“यूं ही एक दरवेश चला आया था – न जाने कहां से!” पंडित कमल किशोर ने संक्षेप में बताया था। “उसके आने के बाद से ही ..”

“कौन था?” कौतूहल वश प्रहलाद पूछ रहा था।

“मिला दूंगा!” पंडित कमल किशोर ने वायदा किया था।

प्रहलाद प्रफुल्लित हो उठा था। उसे भी लगा था कि उसकी पूर्ण परिचित गरीबी भी शायद उसे छोड़ जाए!

“याद है – कमल जब भारत आजाद हुआ था तो हमने सोचा था कि अब हमारा राज आएगा। संस्कृत राष्ट्र भाषा बनेगी और हमारी पद प्रतिष्ठा बढ़ेगी। लेकिन ..”

“नेहरू ने सब गुड़ गोबर कर दिया था।” टीस कर बताया था पंडित कमल किशोर ने। “तभी तो मैं छोड़ कर भाग आया था। “धर्म, भाषा और संस्कृति सब को तिलांजली दे न जाने कौन से ख्वाब में खो गए थे नेहरू जी?”

“ये चाल थी।” प्रहलाद ने याद दिलाया था। “ये मुसलमान और ईसाइयों की चाल थी।” उसने पुष्टि की थी। “ये देश को हथियाना चाहते थे।”

“वो तो अभी भी चाहते हैं!” कमल किशोर बोला था। “सुमेद ..” कहते-कहते पंडित कमल किशोर रुक गए थे।

“क्या किया सुमेद ने?”

“वही जो हमने नहीं किया!” पंडित कमल किशोर ने प्रहलाद की आंखों में देखा था। “डरपोक थे हम – प्रहलाद!” भावुक हो आए थे पंडित कमल किशोर। “हम में तो कुछ मांगने तक का साहस भी न बचा था।”

“प्रणाम चाचा जी।” अचानक एक रूपवती युवती ने आ कर पंडित कमल किशोर को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया था।

“संघमित्रा है!” प्रहलाद ने परिचय कराया था। “जिसे तुम ने इत्ती सी देखा था।” प्रहलाद ने हाथ के इशारे से बताया था।

“बैठो बेटी!” पंडित कमल किशोर स्नेह पूर्वक बोले थे।

“देवकी तो रही नहीं!” प्रहलाद बोला था। “अब में इसकी भाभी जी से शिकायत करने के लिए आया हूँ। बंसी का लड़का है। विलायत पास करके लौटा है। ब्याह करके साथ ले जाएगा, उसका वायदा है। लेकिन ये माने तब न!”

“क्या करोगी बेटी?” पंडित कमल किशोर ने संघमित्रा से पूछा था। वो संघमित्रा को देख कर हैरान थे। लंबा कद, कंचन काया और चढ़ते यौवन का उन्माद उन्हें भ्रमित कर रहा था।

“मौसी बहुत बीमार हैं!” संघमित्रा ने उत्तर दिया था। “अकेली हैं!” उसने बताया था। “मैं अब मौसी की सेवा करूंगी!” उसने ऐलान किया था।

पंडित कमल किशोर को संघमित्रा की बात समझते देर न लगी थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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