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राम चरन भाग सत्ताईस

Ram Charan

“क्या बात है? कई दिनों से उदास-उदास रहते हो?” श्यामल ने कालू से पूछ लिया था।

कालू कई पलों तक चुप रहा था। उसकी समझ में न आ रहा था कि मन की कुंठा को श्यामल को कैसे कह सुनाए।

“क्या राम चरन भाग गया?” श्यामल ने हिम्मत बटोर कर जटिल प्रश्न पूछ लिया था।

“नहीं! वो काम तो बन गया!” कालू ने आहिस्ता-आहिस्ता बयान किया था। “पन ..” वह फिर से चुप हो गया था।

“हुआ क्या है?” श्यामल ने झुंझला कर पूछा था।

“सुमेद का एडमीशन मैरी एंड जॉन्स में हो गया है।” कालू ने मन के गहरे में चुभते कांटे को श्यामल के सामने उगल दिया था।

“तो फिर क्या हुआ?” श्यामल कुछ समझ न पाई थी।

कालू को रोष चढ़ने लगा था। अनपढ़ आदमी की मुसीबत ही तो बड़ी थी कि वो आगे का कुछ सोच ही न पाता था! श्यामल के लिए खाने सोने के सिवा सब कुछ काला अक्षर भैंस बराबर था। पंडित जी पढ़े लिखे थे। पंडिताइन भी पढ़ी लिखी थी। अब उनका बेटा सुमेद कॉन्वेंट में अंग्रेजी पढ़ेगा और ..

“बताओ न क्या हुआ?” श्यामल ने कालू को झिंझोड़ डाला था।

“सुमेद अंग्रेजी पढ़ लिख जाएगा ..”

“तो क्या कलक्टर बन जाएगा?” श्यामल ने उलाहना जैसा दिया था।

“हां-हां! कलक्टर बन जाएगा! अंग्रेजी पढ़े लिखे ही तो कलक्टर बनते हैं!” अब कालू रोष में था। “तुम्हारी अक्ल में ये कहां घटेगा?” कालू ने श्यामल को कोसा था। “हमारे भी दो बेटे हैं। रह जाएंगे अनपढ़ तो रेहड़ी ही खींचेंगे!” कालू रुआंसा हो आया था।

“तो – तुम भी करा दो मैरी एंड जॉन्स में एडमीशन!” श्यामल कूद कर सामने आ गई थी। “अब तो कमाई ठीक-ठाक है। बच्चे भी पढ़ जाएंगे तो ..”

“बातों से होता है एडमीशन!” कालू फिर से नाराज हुआ था। “कुंवर साहब ने फोन किया था, तब एडमीशन हुआ था सुमेद का!” कह कर कालू ने बहुत दूर देखा था।

अब श्यामल भी चुप थी। सोच में डूबी थी। उसे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन कालू की व्यथा उसे भीतर से खाए जा रही थी। अरुण वरुण के चेहरे भी कई बार सामने आए थे। लेकिन उसे भी कोई हल न सूझा था।

“हमारा है कोई नहीं!” कालू मुनकने लगा था। “छोटे आदमी को बड़ा आदमी पास ही नहीं बिठाता!” उसकी आंखें भर आई थीं।

“है – हमारा भी है – कोई!” श्यामल ने कालू का हाथ पकड़ कर दिलासा दिया था। “याद आया – मंगी इसी मैरी एंड जॉन्स में नौकरी करती है। याद है जब हम बीमारी में बिहार भागे थे तो वो भी साथ भागी थी। तब मिली थी। मेरे ही गांव की तो है। मदनपुर खादर में किराए की झुग्गी में रहती है। उसका आदमी रिक्शा चलाता है। ठीक-ठाक गुजर हो रही है। दो बच्चे हैं और ..”

“और क्या?” कालू ने पूछ लिया था।

“इतवार की छुट्टी करती है। मैं जा कर देखती हूँ .. अगर ..” श्यामल ने कालू की भीगी आंखों में एक आशा किरण का संचार कर दिया था। “तुम चिंता मत करो। मैं संभाल लूंगी इस काम को!” श्यामल ने वायदा किया था।

कालू को राहत मिली थी। मन में छिदा निराशा का डंक बाहर आ गया था। श्यामल आज उसे किसी वीरांगना से कम न लगी थी। डूबते को तिनके का सहारा – कम नहीं होता। कालू के मन में एक उम्मीद जाग उठी थी। मंगी बिहार की थी। उन्हीं की तरह गुजर-बसर कर रही थी। कालू मान रहा था कि यहां से उन्हें मदद अवश्य मिलेगी।

अंधेरे आसमान पर अचानक सूरज उग आया था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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