Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

राम चरन भाग सात

Ram Charan

हर रोज की तरह पंडित कमल किशोर की मंदिर तक पैदल जाने की जिद हार गई थी।

लगा था उनके पैर टूट गए थे। डर था कि अगर ढोलू शिव की मूर्ति राम चरन ले कर चला गया होगा तो आज उनका प्राणांत भी हो सकता था। राजेश्वरी ने रिक्शा बुला लिया था। बड़े जतन से उसने पंडित जी को रिक्शे में सहेजा था और रिक्शे वाले को हिदायत भी दी थी कि वह सावधानी से पंडित जी को मंदिर में उतारेगा!

पंडित जी एक अजीब सी बे ध्यानी में रिक्शे पर बैठे थे और ढोलू शिव का स्मरण कर रहे थे। यही एक आखिरी उम्मीद उनके पास बची थी।

लेकिन कालू जी जान लगा कर रेहड़ी को घसीट रहा था। आज बहुत माल भरा था – वह जानता था। लेकिन राम चरन आएगा या नहीं इसी धुन बुन में वो बेसुध था।

पंडित जी ने जब दूर से ही ढोलू शिव मंदिर पर फहराते धर्म ध्वज को देखा था तो श्रद्धा पूर्वक उसे प्रणाम किया था। और कालू की दृष्टि जैसे ही मंदिर पर पड़ी थी वह भी खबरदार हो गया था। उसने सोच लिया था कि वह मंदिर के सामने रुकेगा नहीं। वह मंदिर के भीतर भी नहीं झांकेगा। वह सीधा-सीधा अपनी राह गहेगा। राम चरन आए .. या ..

“पाएं लागूं पंडित जी!” कालू ने रिक्शे में बैठे पंडित कमल किशोर का अभिवादन किया था।

“सदा सुखी रहो!” पंडित जी ने आदतन उसे आशीर्वाद दिया था। लेकिन कालू को देख वो जल भुन गए थे। उनके दुख का मूल कारण वही तो था।

रिक्शे वाले ने जैसे ही पंडित जी को उतारना चाहा था – राम चरन आन पहुंचा था।

पंडित जी की आंखें छलक आई थीं। ढोलू शिव का अहसान आज फिर ले लिया था उन्होंने। अब राम चरन को गौर से देखा था। लगा था – वह नहा धो कर आया था। पंडित जी गदगद हो गए थे। राम चरन ने पंडित जी के चरण स्पर्श कर प्रणाम किया था। पंडित जी ने सदा सुखी रहो का आशीर्वाद दिया था। राम चरन ने रिक्शे से सामान उतारा था और पंडित जी अब स्वयं कूद कर नीचे उतरे थे। उनके पैरों के नीचे आई धरती ने उन्हें फिर से जीने का विश्वास बांटा था। आहिस्ता-आहिस्ता वो मंदिर की सीढ़ियां चढ़ रह थे और राम चरन उनके पीछे-पीछे चला आ रहा था।

मंदिर में चहल पहल देख पंडित कमल किशोर की बाछे खिल गई थीं। उन्होंने मुड़ कर राम चरन को देखा था तो वह मुसकुरा गया था।

पंडित जी अपने आसन पर बैठे आज बड़े ही गुरु गंभीर लग रहे थे।

उनकी आंखों के सामने ही चमत्कार हो रहा था। मंदिर में खूब आवाजाही हो रही थी। पहले तो इस वक्त कोई चिड़िया थी पर नहीं मारती थी। लेकिन आज मंदिर पूरी तरह से जगमगा रहा था। लोग उनके पैर छू कर आशीर्वाद ले रहे थे। मंदिर की घंटी बार-बार टन्ना रही थी। ढोलू शिव भी गुरुता के साथ पधारे प्रसन्न दिख रहे थे। मंदिर भी चमक दमक रहा था।

“ये कौन फरिश्ता चला आया था?” स्वयं से पूछ रहे थे पंडित जी। “भूखा तो होगा!” उन्हें अचानक ध्यान आया था। “राजेश्वरी ने ध्यान नहीं रक्खा” – राम चरन के लिए खाना नहीं रक्खा था वह जानते थे। उन्हें राजेश्वरी के छोटापन का एहसास हुआ था। अभावों में पली है – वह मन में कह रहे थे।

“और सुमेद ..?” वो कई पलों तक सुमेद के बारे ही सोचते रहे थे। “बुद्धिमान तो है!” उन्होंने तय किया था। “लेकिन .. लेकिन” उन्हें लगा था जैसे वो सुमेद से छोटे पड़ रहे थे।

ग्यारह बजते न बजते मंदिर में भीड़ का तांता टूटने लगा था।

“भोजन के बाद आप आराम कीजिए!” राम चरन बताने लग रहा था। “मैं लौट आऊंगा तो फिर से सब संभाल लूंगा।” उसका वायदा था।

राम चरन कालू को भूला न था। वह भूला न था कि कालू को उसकी मदद की सख्त जरूरत थी। भजन यहां तो भोजन वहां – कह कर राम चरन मुसकुराया था। दोनों कुंडियों पर पैर रखना जरूरी है – उसने मान लिया था।

अपने प्राप्त नए संसार में राम चरन आगे बढ़ रहा था।

अपनी नई दुनिया का रंग ढंग उसे अभी तक बुरा न लगा था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Exit mobile version