लाख कोशिश करने के बाद भी राम चरन सुंदरी को भूल नहीं पा रहा था।
“तू पागल है साला!” राम चरन के कानों ने जानी पहचानी आवाज सुनी थी।
“ये फंसेगा जाल में!” दूसरी आवाज भी हूबहू वही थी।
“बे! तुझे दिखता क्या है – इस माल में?” पुराना प्रश्न था – जिसका उत्तर उसे आज भी नहीं आता था।
दिखता तो आज भी कुछ नहीं था – राम चरन को! सुंदरी से तो परिचय तक न था। केवल और केवल नजरें भर कर देखा था – उसे। और जो सुंदरी ने उससे मात्र इशारों-इशारों में कह दिया था वो तो – वो तो पूरा का पूरा प्रेम जाल था। डुबो दिया था – अपांग, प्रेम के सागर में और अब पल-पल – हर पल उसे सता रही थी – बुला रही थी।
“अब क्या करूं?” राम चरन ने स्वयं से प्रश्न पूछा था।
“बे साले! औरत केवल और केवल भोगने की वस्तु होती है!” फिर वही पुरानी आवाज सुनी थी राम चरन ने। “भोगो और भूल जाओ!” उसने राय दी थी।
ना-ना! नहीं-नहीं! राम चरन बिलख उठा था। मैंने तो कभी उसे भोग की वस्तु नहीं माना था। मैंने तो सच्चा प्यार दिया था – वह बड़बड़ा रहा था। मैं तो उसे प्राणों से भी ज्यादा प्यार करता था।
“लेकिन तुमने ही तो ..” फिर से वही आवाज आई थी। लेकिन राम चरन ने अब कान बंद कर लिए थे।
वह उस भूली दास्तान को दोहराना नहीं चाहता था।
“ये तो सिचुएशन ही अलग है यार!” राम चरन का खिलंदड़ मन मानना नहीं चाहता था। “माल है! खुल खेल कर खाओ और पचाओ!” उसकी राय बनने लगी थी। “शासकों के तो औरतों के हरम होते थे, मेरे यार!” वह हंसने लगा था। “उठा लाते थे – सुंदर औरतों को! कैसा प्यार, कौन सा प्यार!”
आज जैसे राम चरन का तीसरा नेत्र खुला था।
“सोच क्या रहे हो – पागल!” अब वह स्वयं से बतिया रहा था। “ये सुंदरी तो सफल होने की पहली सीढ़ी है!” एक विचार लौटा था। “मंजिल कौन है?” उसने फिर से स्वयं से पूछा था। “आंखें खोल कर देखो, दोस्त! सुंदरी के सहारे तुम कहां तक जा सकते हो – है कोई ठिकाना?”
“लेकिन .. लेकिन मैं तो सुंदरी से प्यार करता हूँ। मैं उसके साथ छल नहीं करूंगा!” राम चरन ने सीधे-सीधे स्वीकारा था।
“फिर वही पहले वाली गलती करोगे दोस्त!” वही पुरानी आवाज आ रही थी। “हाहाहा!” दूसरी आवाज हंसने लगी थी। “कुत्ते की दुम!” पहला बोला था। “बारह बरस के बाद भी टेढ़ी!” अब वो दोनों हंस पड़े थे।
फिर न जाने क्या हुआ था कि राम चरन का दिमाग बोल उठा था।
“इसे पटाओ! इसे छकाओ! इसे इस्तेमाल करो! खूब भोगो! ब्लैक मेल करो! और अंत में बेच खाओ!” इतिहास था – जो सामने खड़ा-खड़ा हंस रहा था।
“चुप!” राम चरन ने स्वयं को आदेश दिया था। “होंठ बंद! गर्भ गृह की तरह सब शांत!”
दीवारों के भी कान होते हैं – राम चरन को पहली सीख की तरह अपना सबक याद हो आया था।