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राम चरन भाग एक सौ चार

Ram charan

ढोलू शिव के वार्षिकोत्सव का आज समापन दिवस था।

इस बार की पूरी व्यवस्था आचार्य प्रहलाद और पंडित कमल किशोर ने की थी। बीच में दो बार इंद्राणी और कुंवर साहब व्यवस्था देखने आए थे। वो प्रसन्न हो कर लौटे थे। आज भी समापन समारोह की व्यवस्था श्रेष्ठ थी।

विशाल शामियाना लगाया गया था। बैठक गलीचों पर थी। काशी से आई आचार्य प्रहलाद की वेद पाठी ब्राह्मणों की टोली यज्ञ संस्कार के लिए विधि विधान में व्यस्त थी। हवन कुंड के बाएं महिला समाज की बैठक थी तो दाहिने पुरुषों का स्थान था। सामने ढोलू शिव की प्रसन्न मना प्रतिमा थी। और पूजा स्थल खूब सजाया गया था।

राम चरन ने सुंदरी को नई निगाहों से देखा था। सुंदरी ने राम चरन की लाई खादी की साड़ी पहनी थी। आज पहली बार राम चरन को अहसास हुआ था कि सुंदरी कितनी आकर्षक लग रही थी – उस बर्फ सी सफेद साड़ी में। नया ही रूप रंग चढ़ा था सुंदरी पर।

सुंदरी को महिलाओं के विभाग में बिठा राम चरन पुरुषों के विभाग में आ बैठा था।

“हैलो!” सुमेद आया था और राम चरन के पास बैठ गया था। “कैसे हैं आप?” उसने आहिस्ता से पूछ लिया था।

“फिट एंड फाइन!” राम चरन ने भी मुसकुराते हुए उत्तर दिया था।

न जाने कैसे राम चरन को सुमेद की निष्पाप आंखें और उज्ज्वल दंत पंक्ति ने प्रभावित कर दिया था। सुमेद के युवा शरीर से रिसती सामर्थ्य ने राम चरन को खबरदार कर दिया था। सुमेद के क्रांति वीर और कर्म वीर भी समारोह में शामिल हुए थे।

कुंवर साहब और इंद्राणी आहिस्ता-आहिस्ता चल कर आए थे और हवन कुंड के दाहिने आ बैठे थे।

काशी से आए श्री नाथ जी ने यज्ञ संपन्न कराना था। मंत्रोच्चार उन की पूरी टोली ने करना था और कुंवर साहब तथा इंद्राणी ने आहुतियां डालनी थीं। पूरा पंडाल आगंतुकों से नाक तक भरा था। और तब राम चरन ने देखा था कि राजेश्वरी के साथ चलकर आई संघमित्रा महिलाओं के विभाग में जा बैठी थी। राम चरन का मन प्राण खिल उठा था। राजेश्वरी और संघमित्रा उसे मां बेटियों सी लगी थीं।

यज्ञ संपूर्ण होने के बाद शिव का स्तुति गान होना था। राजेश्वरी दोनों हाथों में दीप दान लिए शिव के एक ओर खड़ी थी तो संघमित्रा हाथ जोड़े और नेत्र मूंदे भक्ति भाव में मगन शिव के दूसरी ओर खड़ी हुई थी। बांसुरी की सुमधुर गूंज पूरे पंडाल में लबालब भरी थी। तब संघमित्रा ने शिव स्तुति गाना आरंभ किया था – नमामी शमीशान निर्वाण रूपम ..

राम चरन के लिए यही वो पल था जिसके इंतजार में वह सांस साधे बैठा था। स्तुति गान गाती संघमित्रा संस्कृत श्लोक गा रही थी और राम चरन को कुछ भी समझ न आ रहा था। फिर भी उसने आज पहली बार महसूस किया था कि देवताओं का आभार व्यक्त करता मनुष्य परम पद प्राप्त कर लेता था। शायद सत्य यही था।

चाय पीते-पीते राम चरन संघमित्रा के बहुत समीप आ गया था। संघमित्रा के कोरे शरीर से रिसती गंध ने उसे बेहोश बना दिया था। पहली बार उसने संघमित्रा की सुंदर सुडौल उंगलियों को ललचाई निगाहों से देखा था। संघमित्रा के पैर भी बेहद खूबसूरत थे। सलमा के पैर गंदे रहते थे – राम चरन को याद आया था। और उसकी उंगलियां भी मुड़ी हुई थीं। राम चरन के मुंह में उबकाई भर आई थी।

“आप आए नहीं?” राम चरन ने प्रहलाद को पकड़ा था। उसने प्रणाम किया था। फिर चरण स्पर्श किए थे और अब प्रश्न पूछा था।

“गया था। लेकिन आप गुजरात गए हुए थे।” आचार्य प्रहलाद ने हंस कर सूचित किया था।

“ओह! माई फॉल्ट!” राम चरन ने क्षमा मांगी थी। “अब आइए न?” उसने आग्रह किया था।

“कल ही आता हूँ। फिर तो काशी लौटना है। वहां से भी खबरें आ रही हैं।” आचार्य ने राम चरन को आश्वासन दिया था।

राम चरन का शिकारी मन तुरंत ही बंदूक ले कर बाहर आ गया था। वह तो फौरन ही फायर कर संघमित्रा को लूट लेना चाहता था लेकिन भारत अभी तक आजाद था, समर्थ था, एक राष्ट्र था और अपने नागरिकों की रक्षा सुरक्षा में तैनात था।

मुनीर खान जलाल को इस्लाम सभा में ओटी चुनौती अचानक याद हो आई थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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