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राम चरन भाग एक सौ अड़तीस

Ram charan

अपने एकांत में प्रसन्न बैठे राम चरन को अचानक निजाम हैदराबाद की सत्ता, शासन और साहस याद हो आए थे।

“इनसे मिलिए जनाब।” सज्जाद मियां ने राम चरन का परिचय कराया था। “आप हैं प्रकाश पंडित।” उसने उस धुले मंजे से आदमी से मिलाया था जो कि विद्वान लग रहा था। “ये निजाम हैदराबाद के मुरीद हैं।” तनिक हंस गए थे सज्जाद मियां। “बड़े अच्छे लेखक हैं।” सज्जाद बता रहा था। “और खास कर उर्दू, संगीत, साहित्य और शायरी में बेजोड़ हैं।”

“क्या लिखा है आपने?” राम चरन ने यूं ही प्रश्न पूछ लिया था – प्रकाश पंडित से।

“निजाम नामा लिखा है मैंने जनाब।” प्रकाश पंडित का उत्तर था। वो मुसकुरा रहे थे। “ये एक प्रति आपके लिए।” उन्होंने झोले से एक मोटी पुस्तक निकाली थी राम चरन को देने के लिए। “दिल्ली से छपा है। इसे प्रख्यात प्रकाशक राम नाम ने छापा है।” वो बताते रहे थे।

“जनाब। इन्होंने रिसर्च की है निजाम सल्तनत के बारे।” सज्जाद मियां फिर से बताने लगे थे। “आप इस किताब को पढ़ेंगे तो हैरान रह जाएंगे – ये जान कर कि निजाम हैदराबाद ..”

“मैं जरूर पढ़ूंगा।” राम चरन ने प्रकाश पंडित को बधाई देते हुए कहा था।

प्रकाश पंडित ने वास्तव में ही निजाम हैदराबाद को लार्जर देन लाइफ बता कर एक महा मानव की उपाधि दी थी। निजाम की सा सौ बेगमें थीं – ये बड़ा ही रोचक प्रसंग था। और प्रकाश पंडित ने इसे स्वाभाविक अपवाद बताया था।

“हैदराबाद नहीं – लखनऊ।” अचानक राम चरन का दिमाग बोला था। “लखनऊ को बनाएंगे इस्लाम का कल्चरल सैंटर। छोटे इमाम बाड़े में बड़ा सा एक कॉम्प्लेक्स बनाएंगे – एशियाटिक अंपायर का कल्चरल सैंटर।” राम चरन ने मन में तय कर लिया था – दैन एंड देयर।

“ये उर्दू का अखबार भी निकालते हैं – प्रकाश पर्व।” सज्जाद मियां दूसरी सूचना दे रहे थे। “जनाब। इस अखबार की कॉपियों की टूट पड़ जाती है हैदराबाद में। बहुत बिकता है।” मुसकुरा रहे थे सज्जाद मियां। “मैं कभी कॉपी मिस नहीं करता पंडित जी। प्रकाश पर्व पढ़ना ..” उन्होंने अपनी आम आदत बताई थी।

“लखनऊ में भी प्रकाश पर्व का दफ्तर बनाइए पंडित जी।” अचानक राम चरन ने निवेदन किया था। “जगह हम देंगे। पैसा भी लगाएंगे। छोटा इमाम बाड़ा खाली पड़ा है। आपका एक बड़ा काम हो जाएगा।” राम चरन ने आहिस्ता से बात सामने रख दी थी।

लखनऊ में काम शुरू हो चुका था। प्रकाश पंडित ने दाना खा लिया था।

“रेखता – एक बार फिर से फलेगी फूलेगी तो दुनिया की भाषा बन कर रहेगी। फिर तो अंग्रेजी को कोई पूछने वाला ही न रहेगा। ईसाई धर्म का भी विकास रुक जाएगा। जहां तक हिंदी का सवाल है वहां तो हिंदू ही उसे उजाड़ने में लगे हैं। हाहाहा।” हंस पड़ा था राम चरन। “संघमित्रा कितने ही संस्कृत के सुंदर श्लोक बोल ले लेकिन हिन्दी अब उठेगी नहीं। और संस्कृत भाषा चलेगी नहीं।” राम चरन इस बात को मान गया था।

लखनऊ के आसपास बड़ा ही फरटाइल माहौल था – राम चरन अब जानता था। अलीगढ़ की मुस्लिम यूनिवर्सिटी विश्व विख्यात थी। देवबंद पूरे संसार का इस्लामिक ब्रेन था। दिल्ली की जामिया की तीखी इस्लामिक धार तो घातक घाव दे देती थी। मुसलमानों की आबादी भी खूब थी। मुसलमान धनाढ्य थे, लड़ाके थे, जीवट वाले थे और हिन्दुओं को डॉमिनेट करते थे।

दिल्ली को अगर इस्लामिक इतिहास का सैंटर बनाया जाए तो शायद बेहतर होगा – राम चरन को पुन एक विचार कौंधा था। इस्लाम के करतब तो दिल्ली की हर दीवार पर लिखे थे – ये तो उसने अब स्वयं आ जा कर देख लिया था। दिल्ली की सड़कों पर मुगल पुरोधाओं के नाम लिखे थे। दिल्ली की हर गली पर इस्लाम का भूत बैठा था। मुगल अभी तक भारत छोड़ कर गए नहीं थे – उसने मान लिया था। हिन्दू सो रहे थे। सुख की नींद ले रहे थे। जबकि इस्लाम का तार पूरी दुनिया से जुड़ चुका था। और जिहाद का करंट कॉन्टीनैंट्स के आर पार हो चुका था।

“अल्लाह ने चाहा तो एशियाटिक अंपायर अब बन कर रहेगा।” राम चरन ने स्वयं से कहा था। “और मुनीर खान जलाल अब नौकर नहीं एक मोनार्क होगा।”

ताली पीट कर हंसा था – अपराजित राम चरन।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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