कालू अगले दिन की तैयारियों में मगन था।
आज न जाने कैसा नया उत्साह था कि उसे थकान का कोई कतरा तक छू नहीं पा रहा था। पैर भाग रहे थे, हाथ दौड़ रहे थे और दिमाग तो बहारों से भरा था। कौन था राम चरन – बार-बार यही प्रश्न आता था और चला जाता था। अगर राम चरन आ जाए – दो-चार महीने भी टिक जाए फिर तो खूब आमदनी बढ़ जाएगी। घर किराए पर था और खर्चे सर से ऊपर निकल जाते थे। तनिक सी भी सांस आ जाती तो ..
यहीं दिल्ली में ही कुछ करना होगा। वहां बिहार में तो उसका कुछ था ही नहीं। कोरोना काल में पहुंच गए थे तो विपदा के ऊपर विपदा सवार हो गई थी। नंगे भूखे पहुंचे थे तो किसी ने भी घास नहीं डाली थी। हाल बेहाल दिल्ली लौटे थे। भला हो कुंवर खम्मन सिंह ढोलू का जो सहारा दे दिया वरना तो ..
और दो बेटे भी हैं। उनकी भी पढ़ाई लिखाई ठीक से नहीं हुई तो ..? नहीं-नहीं! वो ठेली नहीं चलाएंगे! चाहे ..
“सुनो! मेरे वो दो पुराने कुरते पाजामे रख देना ठेली पर!” उसने श्यामल को बताया था।
“क्यों?” श्यामल का शरारती स्वर था। वह चहक रही थी।
“राम चरन के कपड़े तार-तार हो चुके हैं। पहन लेगा बेचारा!”
“ठीक है।” श्यामल ने हामी भरी थी। “लेकिन तुम्हारे कुर्ते पाजामे तो ..?”
“अरे नहीं! बड़ी सुघड़ कद काठी है उसकी। देखोगी तो दंग रह जाओगी। लगता है कोई कहीं का राजकुमार, गमों का मारा कोई मसीहा जो चलता है तो लगता है जमीन उसके साथ चलती है।”
श्यामल बहुत देर तक कालू को देखती रही थी।
“बहुत जनों का खाना है। बिक जाएगा न?” श्यामल ने सहमते हुए पूछा था।
“अगर राम चरन आ गया तो जरूर बिकेगा, वरना तो ..”
एक पल के लिए उन दोनों की आंखें मिली थीं और बिछुड़ गई थीं।
“इतने फिदा क्यों हो राम चरन पर?”
“पता नहीं!” कालू ने कहा था और बहुत दूर देखा था।
आज वह घर से जल्दी निकल रहा था। पैर उठ रहे थे – तेज-तेज। राम चरन से मिलने की एक अनोखी उमंग थी। मन था कि रास्ते में पंडित जी से मुलाकात की जाए। पर उसका मन न माना था। अच्छा नहीं लगेगा – उसने सोचा था। और राम चरन भी क्या सोचेगा कि वो उससे झूठन धोने के लिए ..
“तुम भी तो धोते हो झूठन?” कालू का स्वयं से प्रश्न था।
“गरज बावली है! है नहीं कुछ हाथ पल्ले!” कालू बड़बड़ाया था। “हां! एक बार धंधा चल जाए फिर तो ..! तनिक सा भी टिक जाए राम चरन और महीने दो चार भी निकल गए तो उसका काम हो जाएगा! कालू हिसाब लगाता रहा था। “उसके बाद तो .. हां-हां वह ठिकाना ही बदल देगा!”
श्यामल बाजार में अगले दिन का सौदा सुल्फ खरीद रही थी।
लेकिन उसका मन भी आज राम चरन में ही उलझा रहा था। क्या आएगा – या नहीं राम चरन – बार-बार एक ही प्रश्न वो पूछे जा रही थी। कैसा होगा राम चरन? फटे पुराने कपड़ों में भी कोई देव तुल्य कैसे लग सकता है? क्या खो कर आया होगा – राम चरन? उनके पास तो अभी तक कुछ खोने को नहीं था। न कुछ करने को था और न पाने के लिए ही कोई जुगाड़ था। अरुण और वरुण भी ..
कालू को ढोलू शिव मंदिर दूर से दिखाई दे गया था।
लेकिन वो मंदिर के सामने रुकना नहीं चाहता था। मिलना भी नहीं चाहता था राम चरन से। आवाज भी नहीं देना चाहता था – उसे।
वह चाहता था कि राम चरन स्वयं ही चलकर उसके पास आए!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

