राम चरन अकेला था। सुंदरी सात सतियों की समाधि पर जल चढ़ाने चली गई थी।
अचानक ही राम चरन सतियों के बारे में सोचने लगा था। सती होना, पतिव्रता होना और एक पुरुष के नाम पर ही जीवन जीना हिंदू स्त्रियों का आभूषण माना जाता था। सुंदरी भी एक हिंदू स्त्री थी। वह विधवा थी। फिर वह महेंद्र के नाम पर क्यों नहीं जी पाई? अगर उसे महेंद्र से सच्चा प्यार था तो उसके साथ सती क्यों नहीं हुई? और फिर अब सतियों की समाधि पर जल चढ़ाने जाने का क्या अर्थ था?
“फ्राॅड!” अचानक राम चरन के मुंह से शब्द निकल गया था। “कोई किसी के लिए नहीं जीता!” वह कहने लग रहा था। “वो .. वो भी तो झूठ बोलती थी और उससे इश्क करती थी।” अचानक राम चरन को एक झटका लगा था और उसने होंठ बंद कर लिए थे। वह नहीं चाहता था कि उसके भीतर भरा लावा बाहर आ कर बिखर जाए!
निपट अकेला हुआ राम चरन जैसलमेर की खोज करने निकल पड़ा था।
आश्चर्य ही था कि किस तरह इस रेगिस्तान में आ कर किसी को राज महल बनाने की सूझ फूटी होगी। इस बियाबान में आ कर शहर बसाना क्या कोई मजबूरी थी? लगता रहा था जैसे किसी दिव्य पुरुष का पवित्र सपना यहां आ कर साकार हुआ होगा!
भवानी संग्रहालय का बोर्ड पढ़कर राम चरन उसमें अंदर घुसा था। उसे उम्मीद थी कि वहां समय बिताने के साथ-साथ कुछ जानकारी भी हासिल होगी। और उसकी बात भी सच निकली थी। उसने देखा था कि संग्रहालय में पूरे राजपूताना का इतिहास संजो कर रक्खा था। युद्ध के मैदान में करतब दिखाने वाली हर वस्तु यहां उपलब्ध थी। घोड़े, ऊंट और हाथियों के युद्ध लड़ने के सारे के सारे साज सामान करीने से सजा कर रक्खे थे। उसके बाद तीर कमान, तलवारें, भाले और बरछों की कतारें सजाई गई थीं।
एक अलग विशाल हॉल में दीवारों पर योद्धाओं के आदम कद तैल चित्र टंगे थे।
राम चरन का मन ललचा गया था। वह बारी-बारी उन तैल चित्रों को देख रहा था। अचानक वो दो चित्रों के सामने खड़ा हो उनके नीचे लिखे परिचय को पढ़ने लगा था। लिखा था – जोरावर और महरावत ये दोनों सगे भाई थे, दोनों महान योद्धा थे। दोनों ने धर्म परिवर्तन किया था और किशनगढ़ तथा घोटारू के शासक बन गए थे। फरीद खान जमाल और मुरीद खान पठान के परिवार बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गए थे।
“आओ-आओ मुनीर बेटे।” अचानक राम चरन ने आवाज सुनी थी। “पड़पोते का मुंह देख लिया। अब मैं जन्नत चला जाऊंगा। अल्लाह से दुआ मांगूंगा बेटे कि तुम्हारा मिशन पूरा हो।”
“चुप भी करो दादू!” राम चरन बोल पड़ा था। “दीवारों के भी कान होते हैं!” उसने अपनी नजर को चारों ओर घुमाया था। वहां कोई न था।
हड़बड़ी में राम चरन भवानी संग्रहालय से बाहर निकल आया था।
सूरज सर पर चढ़ आया था। गरम हवा चर पड़ी थी। एक अजीब तरह की बेकली ने राम चरन को असहज बना दिया था। तो क्या – वो राजपूत था – बार-बार यही प्रश्न उठता जा रहा था और उसका पीछा छोड़कर न दे रहा था। हो भी सकता है – राम चरन ने स्वीकारा था। लेकिन उत्तर में कह दिया था – सो वॉट? अब प्रत्यक्ष में तो मैं ..
एक झबरीला पेड़ देख राम चरन उसकी छाया में आ बैठा था।
जन्मेजय का चेहरा सबसे पहले राम चरन के सामने आया था। अचानक ही जल्लाद न लग जन्मेजय उसे कन्हैया लगा था। कोई बहुत सगा सहोदर था जैसे जन्मेजय और सही मायनों में एक राजपूत था, अजेय था, अजर अमर था और कुछ कठोर सा था जो कभी मिटने वाला न था।
“संस्कृत और सनातन तो सृष्टि के साथ ही जन्मे हैं।” राम चरन पंडित कमल किशोर की आवाजें सुन रहा था। “सृष्टि के साथ ही विलुप्त होंगे ये उससे पहले नहीं।”
“फिर तो दादू को जन्नत कभी नहीं मिलेगी!” राम चरन तनिक सा निराश हुआ था। “और .. और मेरा ये मिशन ..?”
“तुम तो राजपूत हो भाई!” किसी ने हंसते हुए उसके कान में कहा था।
फिर एक बार राम चरन की आंखों के सामने जन्मेजय आ खड़ा हुआ था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड