ठेली लगाने से पहले कालू ने चारों ओर नजर दौड़ाई थी।
सब कुछ शांत था। खामोशी कटीली झाड़ियों में चुपचाप बैठी थी। दो चार चिड़िया इधर उधर फुदक रही थीं और चींचीं-मींचीं खेल रही थीं। कालू ने उन्हें सायास देखा था।
“मतलबी यार है, तू!” चिड़िया उसे कहती लगी थीं। “दो टुकड़े कभी हमारे नाम के फेंकता है? कंजूस! हमारा हिस्सा हमें क्यों नहीं देता? भूखों मरेगा तू तब तुझे होश आएगा कालू!”
कालू के पसीने छूट गए थे। उसे इस खामोश वीराने ने डरा दिया था।
तभी – हां-हां तभी एक आश्चर्य की तरह – डूबी नाव की तरह और भुला दिए स्वप्न की नाईं राम चरन झाड़ियों के मध्य से निकल सामने आ खड़ा हुआ था।
“हे राम!” आह निकली थी कालू के अंतरमन से। राम चरन को आया देख वो गदगद हो गया था।
“देर हुई ..?” राम चरन ने क्षमा याचना की थी।
“नहीं-नहीं!” कालू प्रसन्न था। चहका था वह। “अभी तो टैम है।” उसने घड़ी में देखा था। “पहले तुम खाना खा लो!” कालू ने आग्रह किया था और राम चरन के लिए थाली परोसने लगा था।
अब राम चरन का चौंकने का वक्त था।
पहली बार उसने भूख से दो दो हाथ किए थे। पेट कमर से जा लगा था। हाथों में भोजन के लिए हूक भरी थी। दम आंखों में उतर आया था। दिन भी तो आधा चढ़ आया था। उसे तो उम्मीद ही नहीं थी कि कालू आते ही उसे थाली परोसेगा और ..
“ढोलू शिव ..!” राम चरन ने मन में कहा था और हंस गया था। “क्यों भूखा आदमी भेड़िया बन जाता है और जमाने से जान पर खेल कर लड़ जाता है?” राम चरन की समझ में आज आ गया था।
कालू की निराश उदास आंखें एक सलोने दृश्य को घटते देख रही थीं।
चारा पांच ट्रेवलिंग बसें सन्नाती मन्नती चली आई थीं और कुतुब मीनार के पार्किंग में आ खड़ी हुई थीं। वो युवा कॉलेज के पर्यटकों से भरी थीं। कंधों पर कैमरे लटकाए, कमर में अंगोछे बांधे कालेजों के वो युवक फिजा पर आशाओं की तरह फैल गए थे। कालू का मन अब बल्लियों कूद रहा था।
हुआ ये था कि भूखे प्यासे युवक घर के खाने र टूट पड़े थे।
एक युग जैसा गुजरा था – कालू के लिए। भीड़ ही नहीं अटूट भीड़ थी। मांग के ऊपर मांग थी, पैसा था कि खुला बरस रहा था। वह और राम चरन मशीनों की तरह काम से लगे थे।
“ये कुतुब मीनार किसने बनाई थी?” राम चरन ने एक युवक को प्रश्न करने सुना था।
“कुतुबुद्दीन ऐबक ने!” दूसरे युवक ने उत्तर दिया था।
“ओ शिट!” तीसरा युवक बीच में कूदा था। “वो तो लुटेरा था।” वह बताने लगा था। “इन लोगों ने कुछ नहीं बनाया यार!” उसने जोर देकर कहा था। “अवर हिस्ट्री बुक्स आर ए प्रोपेगेंडा!” वह उन सब को न जाने क्या-क्या समझाता रहा था।
राम चरन के हाथ का काम रुक गया था। वह उन युवकों के बीच चलते उस वार्तालाप को ध्यान देकर सुनता रहा था। कालू को तो आज नोट गिनने से फुरसत ही नहीं थी। और न ही उसे उस छिड़ी बहस से कोई सरोकार था। वह तो आज राम चरन और ढोलू शिव का मुरीद हो गया था। आज तो वास्तव में ही उसका देखा सपना साकार हो गया था।
“लो!” कालू ने ठेली में छुपे पुराने कुर्ते पाजामे बाहर खींचे थे और राम चरन को पकड़ा दिए थे। “कपड़े बदल लो!” कालू ने बड़े ही दुलार से कहा था। “फिर दोनों खाना खाते हैं।” वह चहक रहा था।
दो जोड़े पुराने कुर्ते पाजामों को गौर से देखता राम चरन किसी गहरे सोच में पड़ गया लगा था।
झाड़ियों में जाकर राम चरन कपड़े बदल कर लौटा था तो कालू को वह एक बारात का दूल्हा जैसा लगा था।
“अरे! खाना तो ..” कालू बमका था। “चलो! तुम्हारे लिए तो है! खा लो!” उसने संतोष की सांस ली थी।
ढोलू शिव के मंदिर के सामने से कालू चुपचाप गुजरा था। राम चरन को उसने मंदिर की सीढ़ियों पर खड़ा छोड़ा था। क्या फिर कल कोई चमत्कार होगा – हिसाब लगाते-लगाते कालू घर पहुंच गया था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

