
अरे ! यहाँ कोई हिन्दू है …?
चारों और रोशनी ….दीप मालाएं …..नहीं ,नहीं ! लड़ियाँ …बिजली की रोशनी – उन में झिलमिलाती चंद दीप-शिखाएं …! जगमग-जगमग करता शहर ….!! राजधानी जी-सी गई है . नींद त्याग कर उठी है . आँखें खोली हैं . चारों और देखा है .
भीड़ भरी है . बे-तहाशा -भीड़ ! सड़क पर जगह नहीं – मारा-मारी है . बाज़ारों में भरी है -भीड़ , नांक तक ! होटलों में कमरे कम पड़ गए हैं ….! न जाने कहाँ-कहाँ से लोग आ कर गुप्त ठिकानों पर आ घुसे हैं ? गहमा-गहमी है …पर होंठ बंद हैं . चेहरों पर प्रसन्नता नहीं …कठोरता है -महगाई की मार से -शायद ऐसे ही भाव आ जाते हैं ! अभी-अभी शायद …किराए बढे हैं …नया टैक्स लगा है ….और नया क़ानून भी बना है . तभी तो पुलिस पकड़ने को भाग-दौड़ कर रही है !!
फिर भी , भीड़ तो भीड़ है ….उसे रोक कौन पाएगा …? बहेगी तो ….बयार की तरह बहेगी !! चींटी की चाल से ही सही ….पर चलेगी और देर-सवेर पहुंचेगी ठिकानों पर ! लोगों को जिल्लतें सहने की आदत है . मार खाने का भी अनुभव है . पुलिस को पटाना भी उन्हें आता है ! और चोरी का माल चतुराई से घर लेजाने में ये माहिर हैं !!
ये प्रकाश पर्व है ….पग-पग पर रोशनी है ….!!
“अंधे हो …..? टक्कर मार दी ….!!” लो, झगडा भी हो ही गया !! “तोड़ दी , मेरी नई गाडी ….! अव्वे , घोंचू !! कल ही तो ख़रीद कर लाया हूँ . ‘घोघिया-घिन्नो’ है ! लेटेस्ट मांडल है . जानते हो , कित्ते की है ….?” उस का जायका बिगड़ा है . पर अपनी औकात बताने में वह चूक नहीं करता . “पुलिस को फोन लगाता हूँ .” वह उन मोटर साईकिल पर सवार दो अधेड़ उम्र के छोकरों को धमकाता है .
“माफ़ कीजिए, सर !” एक छोकरा बोला है . “हम दिल्ली में नए हैं ….!!” उस ने स्वीकारा है. “ये …कहाँ …., माने कौन सी सड़क है, सर …?”
“पढ़ा नहीं ….?” बिगड़ा है, मालिक. “अकबर रोड है ….! अंधों को भी नज़र आती है …!” वह गुर्राया है.
वह दोनों छोकरे भ्रमित हैं . उस मालिक को घूर रहे हैं . उस का हुलिया भी उन्हें अजब-गजब लगा है .
“फिर …आप का क्या नाम है , सर ….?” दूसरे ने पूछा है .
“क्यों …? गुलशेर हूँ ….पांच होटलों का मालिक हूँ . ”
लडके अब की बार घबरा गए हैं . दोनों बहुत डर गए हैं .
“सर, इस शहर का नाम …..मतलब कि …..”
“दिल्ली है ! इस में भी कोई पूछने की बात है …?”
“राजधानी है ….?” दोनों ने अब की बार एक साथ पूछा है .
“हाँ,हाँ ! राजधानी है !” गुलशेर ने गुर्रा कर उत्तर दिया है .
न जाने क्या होता है कि ….दोनों लडके मोटर साईकिल पर सवार हो भाग जाते हैं . गुलशेर हैरान-सा उन्हें देखत ही रहता है .
“मैं गलत जगा तो नहीं खड़ा ….?” गुलशेर को भ्रम होता है . “क्या मैं दिल्ली में नहीं हूँ ….? क्या ये सड़क ‘अकबर रोड’ नहीं है …? फिर ये लडके भागे क्यों …? चारों और से रोशन हुए इस शहर में …इन लड़कों को कुछ नहीं सूझा …?” वह चल पड़ा है .
“अरे, रे ….! ये तो …’शफदर जंग’ है ….कोई ….!” पीछे बैठा लड़का चिल्लाया है . “साले ! कहाँ लिए-लिए डोल रहा है ….? उधर देख ! लिखा है …..”आसफ अली रोड’ ! भाग व्वे …!” वह गरियाने लगता है .
हड़बड़ी में वो फिर से टकरा जाते हैं !!
“आप कितने होटलों के मालिक है, सर ….?” पीछे बैठा लड़का आगे आ कर पूछता है .
“नहीं,भाई ! मैं तो प्रापर्टी डीलर हूँ . ‘हूमरा पैलेस’ मेरा है . ” वह बताता है.
“और आप का नाम भी …..?”
“टोपनो …है !” वह हंसा है . “नए हो क्या शहर में …? मुझे तो यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है !”
झट-पट दोनों भागते हैं . पीछे मुड़ कर नहीं देखते.
“वो देख ! निजामुद्दीन …! कहाँ ले आया , व्वे …? पागल तो नहीं हो गए , हम ….? ये दिल्ली- हमारे देश की राजधानी कैसे हो सकती है ….? देख,देख ! हुमायूं टोम्ब …! अरे वाह ! कित्ता खिला-खिला दिख रहा है , रोशनी में ….? चल ! आज हुमायूँ से भी मिलते हैं !” वो दोनों निश्चय करते हैं .
“कहाँ से आये हो …..?” एक गले में कैमरा डाले खड़ा आदमी पूछता है . शायद पत्रकार है , कोई …? टोम्ब के अलग-अलग एंगिल से चित्र उतार रहा है .
“ह..ह …हम जी ! ज़फर पुर से पधारे हैं ! दिल्ली देखने आये थे . पर … ये तो लाहौर -सा कुछ नज़र आ रहा है ….?”
“क्यों.क्यों -क्यों ….?” पत्रकार ने पूछा है . “अरे, जामिया मिलिया नहीं गए ….? तुम जैसे यंग मैन तो ….वही मिलते है ! ‘शाह्ज़हानाबाद’ की दिवाली देखनी हो तो आओ मेरे साथ ! शाहजहाँ का दिवाली मनाने का तो अंदाज़ ही अलग था !” वह बता रहा है . “आओ !” वह चल पड़ा है .
लेकिन दोनों लडके भाग जाते हैं . घबराए हैं . भ्रमित हैं . अनजान इस शहर में अपना-सा कुछ खोज लेना चाहते हैं . कोई ऐसी निशानी खोजना चाहते हैं …..जो उन्हें अपने से जोड़ ले ! गाँव से लेकर शहर तक ….जो संज्ञाएँ फैली पड़ी हैं ….सब उन की नहीं हैं . उन का तो अपना नाम भी उन्हें भूल गया लगा है !
“ये,ले ! साले …!! लोधी गार्डन …!!! लोधी स्टेट …., मर गए ….! कौन बियावान में पहुँच गए , व्वे …? ये शहर किस का है ….?” पीछे बैठे छोकरे ने पूछा है .
“मैं आवाज़ दे कर पूछता हूँ , भैया !” वह कहता है और मोटर साईकिल बीच सड़क पर खड़ी कर आवाजें लगता है …. , ‘अरे …! यहाँ कोई हिन्दू है ….? भाई ! हम जफ़र पुर से आए हैं …भटक गए हैं ……! जाना तो …दिल्ली था ….पर ….”
ख़ामोशी है . कोई उत्तर नहीं आत़ा . अब उन्हें रोशनी नहीं ….घोर अंधकार घिरता दिखाई देता है ! प्रकाश-पर्व मनाती राजधानी …जगमग-जगमग जलती रोशनियाँ ….उन्हें अपनापन नहीं बांटते . अपनी राजधानी को तो वो खोज ही नहीं पा रहे हैं …..
“ओ-ए …! उधर चलो ….!!” एक सशक्त आवाज़ ने उन्हें पुकारा है. “बैठो …!!” उस ने खड़ी पुलिस की जिप्सी की और इशारा किया है .
और क्रेन उन की मोटर साईकिल उठा कर अनजान दिशा में भाग गई है !
प्रकाश-पर्व है ! क्या आप भी कुछ नहीं देख पा रहे ….?
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श्रेष्ठ साहित्य के लिए – मेजर कृपाल वर्मा साहित्य !!
