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निर्बल के बल राम

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हम दोनों एक साथ ही होस्टल में पहुंचे थे!

और हम दोनों को देख देख कर वहां के सारे लोग हीं हीं खीं खीं कर चुपके चुपके हंस रहे थे और हमें बिरा भी रहे थे! दिलदार यार शेरा की सिली पोषाकों में मैं अजीब ही एक नमूना लग रहा था – मैंने स्वयं भी महसूस किया था। और शिव चरण तो वास्तव में ही मुझसे भी बड़ा बेहूदा लग रहा था। हम दोनों नए अब उन सब पुरानों के लिए पुरातन से चले आये दो अजूबे थे जिन्हें वो समझने का प्रयत्न कर रहे थे!

“किरपाल!” महेश ने मुझे पुकारा था। “जानता है तेरे कंधे क्या कह रहे हैं?” उसने मुझे अटपटा एक प्रश्न पूछा था। मैं चुप बना रहा था तो वही बोला था। “कह रहे हैं – किरपिल-किरपिल गिरपड गिरपड!” कहते हुए महेश जोरों से हंस पड़ा था।

फिर तो जिसने भी यह सुना था वही हंसा था!

बड़ी कठिनाई के साथ ही मैं अपने आप को संयत रख पाया था। कारण महेश का हलीम सलीम जिस्म देख कर मेरी मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं हुई थी।

“किरपाल!” मुझे और भी कोई पुकार रहा था। मैंने मुड़ कर देखा था तो भूप सिंह – भीम ऑफ दी कॉलेज़ था। “तेरी मेरी कुश्ती होगी!” वह सामने खड़ा हंस रहा था।

“क्यों भाई, तुम सब को मैं ही मिला हूँ क्या?” में कहना तो चाहता था, पर मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी। भूप सिंह जैसे भीम से मैं कह भी क्या सकता था?

कॉलेज़ का पहला दिन तो सब से ज्यादा नाटकीय निकला था। अपनी पुरानी आदतानुसार मैंने अपनी फाइल को पहली सीट पर रख दिया था। भरद्वाज ने मुझे ताड़ लिया था। उसने मेरी फाइल पीछे फेंक चलाई थी।

“ये तुम्हारी गांव की धुर्रा शाही यहां नहीं चलेगी, मिस्टर!” उसने मुझे जोरों से धमकाया था। “पीछे जाकर पधारो!” उसका हुक्म था।

क्या करता? मेरा तो मुंह ही न खुला था। मैं कांप उठा था। मदद के लिए पुकारता भी तो किसे? बाजना की तो बात ही अलग थी। मेरे दो बड़े भाई थे और में उनकी छत्र छाया में बड़ा हुआ था। लेकिन अब .. अब तो मुझे कोई वैसा कोई बरगद का पेड़ न दिख रहा था जिसकी छाया मैं मांग लेता!

“कॉलेज़ के गेट पर आना!” एक था – प्रेम प्रताप जो मुझे घुड़क रहा था। “अभी तुम्हारा नामकरण होगा!” वह तनिक मुसकुराया था। “जोकर तो नहीं – कोई अच्छा सा नाम धरेंगे!” वह भी मेरी खिल्ली उड़ाता रहा था।

दम सूख गया था मेरा अब आकर!

चोर दरवाजे से भाग कर मैं होस्टल चला आया था। लेकिन मैं डर रहा था कि प्रेम प्रताप ने तो मुझे आज नहीं तो कल पकड़ ही लेना था! आश्चर्य की बात तो यह थी कि शिव चरण से किसी ने कुछ भी नहीं कहा था!

मैं अकेला था – निपट अकेला! और इन सूने सूने पलों में मैं सुनने लगा था अपने शुभ चिंतकों की आवाजें।

“क्या करेगा पढ़ कर बेटे?” काका जी कहते थे। “तुमसे तो लोग लप्पड़ मार कर पैसे छीन लिया करेंगे!” वो मुझे आने वाले डर गिनाते थे। लेकिन मैं सबको देख लूंगा कह कर बात को टाल देता था।

“कृपाल बेटे!” ये मेरे मामा जी थे। उनकी आवाज में अफसोस भरा था। “तुम से तो जय पाल के ठेका भी नहीं मरे?” वह पूछ रहे थे। “तुम .. तुम .. बेटे ..?” वह कुछ कह ही न पाये थे। मैंने भी मामा जी को कोई उत्तर न दिया था।

“क्या तुम धरम सिंह और महावीर को बीट कर सकते हो?” इसी शिव चरण ने तो मुझे स्कूल में पूछा था।

“क्यों नहीं?” मैंने तड़क कर जवाब दिया था। “मैं अभी बूढ़ा तो नहीं हुआ?” मेरा तर्क था।

बूढ़ा तो मैं अभी भी नहीं हुआ था लेकिन जवान होने की भी कोई संभावना अभी तक सामने न थी। और .. और जमाना तो मेरी छाती पर आ चढ़ा था! अब हर कोई मुझसे ही जोर आजमाना चाहता था, मुझे ही धमकाना चाहता था, मेरी ही बेइज्जती करना चाहता था और मुझे ही डराना चाहता था!

हो तो क्या हो – मैं समझ ही न पा रहा था। मैं अकेला था – निपट अकेला! मन तो था कि मैं लड़ूं, मुकाबला करूं, ईंट को पत्थर से मार कर तोड़ दूं और जुड़ने दूं जंग एक सूरमा की तरह ..

लेकिन बगैर पंखों के पंछी उड़ता भी तो कैसे?

शिव चरण साइंस छोड़ कर आर्ट्स में चला गया था!

कारण तो स्पष्ट था। एक साथ इंटर में साइंस लेना एक तरह से जटिल काम था। मीडियम अंग्रेजी हो गया था और क्लास में कुछ पल्ले भी न पड़ता था। लेकिन मैंने साइंस पढ़ने का निर्णय कर लिया था और राधा की मैट्रिक की किताबें जो हिंदी में थीं, पहले उन्हें पढ़ता था, फिर अपने सीनियर दाऊ दयाल से मदद ले लेता था और मेरा काम चल पड़ा था।

एक दिन जब मैं कॉलेज़ से लौट रहा था तो मैंने एक संन्यासी को मजमा लगाते देखा था। वह एक दम विवेकानन्द जैसा लग रहा था। वह कह रहा कि वह ब्रह्मचारी था, जोगी था और हर उस असंभव कार्य को संभव कर देता था .. जो ..

“इसे गुरु बना लो कृपाल!” मेरा हिया हर्ष से भर आया था। “इस मौके को हाथ से मत जाने दो!” मुझे मेरे ही आदेश मिले थे।

मैंने उस संन्यासी का पीछा किया था। वह मजमा खत्म कर पैसे कमा कर सोहन पहलवान की बगीची पर आ रुका था। उसके पास एक कुत्ता भी था। मैं अभी कुछ सोच ही रहा था कि उसने अपनी बोतल खोली थी और पीने लगा था। वहीं .. उसी बगीची के आंगन में मेरे इच्छित गुरु ने आत्म हत्या कर ली थी, और मैं लौट आया था!

लेकिन गुरु बनाने का मेरा उत्साह अभी भी मरा न था!

कॉलेज़ में एक संन्यासी ने खेल दिखाया था। उसमें उसका नन्हा शिष्य राम जी तीर कमान से अचूक निशाने मारता था और अंत में भाले की नोक को गले पर रख कर लोहे की छड़ को मोड़ देता था! इस बार भी मैं शाम को उसकी कुटिया में पहुंचा था और मैंने उसे गुरु जी कह कर ही पुकारा था। उसके चरण भी छूए थे लेकिन चुप चाप उसके शिष्य राम जी ने इशारे से जताया था कि वह भी फ्रॉड बाबाजी था!

अब क्या करता? अचानक ही मुझे ‘निर्बल के बल राम’ का किसी साधू का कहा जुमला याद हो आया था। बस – मैंने राम को ही अपना बल बनाने का निर्णय लिया। मैं गीता खरीद लाया था। सुबह सुबह उठ कर और नहा धो कर मैंने गीता पढ़ना आरम्भ किया था।

“अर्जुन! मैं ही सब कुछ हूँ!” मैं गीता पढ़ते पढ़ते रुक गया था। “मैं ही सब कुछ करता हूँ अर्जुन!” मैंने आगे पढ़ा था और रुक गया था!

छुट्टियों में घर लौटा था। मैं उदास था। मैं गमगीन था। “घी की पी पी नहीं लाया?” मॉं श्री ने पूछा था तो मैंने कह दिया था कि खाली नहीं हुई। “क्यों? घी नहीं खाया?” उन्होंने पूछा था तो मैंने कहा था – भूख ही नहीं लगती! मॉं श्री ने मेरा मन ताड़ लिया था। लेकिन वो बेचारी करती भी तो क्या?

अब मथुरा लौटने का मेरा मन ही न था! न जाने कैसे मेरे पैरों में दम ही न रहा था! एक एक कर मेरे सारे मंसूबे और सुनहरे सपने मुझे छोड़ छोड़ कर जा रहे थे। खिलंदड़ कृपाल का तो मैं जैसे पता ही भूल गया था। मेरा कोमल, कमजोर और जर्जर शरीर अब मेरा ही मजाक बनाने लगा था। रह रह कर वही प्रश्न थे जो मुझे हर पल परास्त करते रहते .. और ..

“मैदान छोड़ कर तो नहीं भागूंगा!” मैंने निर्णय लिया था और मथुरा लौट आया था!

बस चल पड़ी थी तो मेरा सोच भी चल पड़ा था!

मैं अचानक ही सोहन की बगीची में जा पहुंचा था। वहीं मेरा कथित विवेकानन्द मुझे दारू पीता दिख गया था। उसके कुत्ते को भी मैंने देख लिया था। लेकिन उसके अलावा जो मैंने उस दिन नहीं देखा था वह अब मुझे दिखाई देने लगा था।

बगीची के ठीक सामने यमुना बह रही थी। बगीची पेड़ पौधों के झुरमुट में दुबकी जैसे घूंघट के उस पार यमुना के फैले वैभव को लगातार देखती रहती थी। वहॉं एक कुआं भी था जहां पहलवान नहाते धोते थे। अखाड़ा था जहां सोहन पहलवान के साथ, उसके शिष्य जोर करते थे। दो चार पत्थर की बेंचें थीं, जहां आगंतुक आकर बैठ जाते थे और उस बगीची के नजारे को आंखें भर भर कर देखते थे!

“फिर एक बार सोहन की बगीची चलते हैं कृपाल!” ये मेरे मन की मांग थी।

और मैं भी उस बगीची के उस अलौकिक सौंदर्य को फिर से देखने के लिए बावला हो उठा था!

“कौन कॉलेज़ में पढ़ते हो?” बेंच पर बैठे मुझे एक पहलवान ने आकर पूछा था।

“च च .. चंपा अग्रवाल!” मैंने डरते डरते कहा था।

“जोर करोगे?” उसने पूछा था। मुझे लगा था – वो पहलवान भी मेरा मजाक बना रहा था। मैं चुप ही बना रहा था।

“अरे घबराने की क्या बात है! पहले पहल तो सब मरियल ही होते हैं!” वह हंसा था। “मैं भी था, लेकिन अब देखो! आओ, गुरु जी से मिला देता हूँ!” उसने राय दी थी। “पिछले साल तो कई कॉलेज़ के पहलवान आते थे ..” वह मुझे बताता रहा था।

सोहन पहलवान ने मेरा स्वागत किया था। लेकिन जब जोर करने का प्रसंग आया था तो मैंने साफ साफ कहा था – मैं पहलवान बनना नहीं चाहता!

“लेकिन सेहत बनना कौन अपराध है?” सोहन पहलवान ने मुझे पूछ लिया था।

यूरेका! यूरेका! मुझे गुरु मिल गया था! मुझे ज्ञान भी मिल गया था!

“ये क्या? पहलवानी करोगे?” शिव चरण मुझे पूछ रहा था। “हम यहां पढ़ने आये हैं कृपाल!” उसने मुझे याद दिलाया था।

“सेहत बनना कौन अपराध है?” मैंने भी उसे सोहन पहलवान का दिया उत्तर पकड़ा दिया था। “चौबीसों घंटे पढ़ सकता है कोई?” मैंने उसे पूछ लिया था।

मैं सुबह चार बजे ब्रह्म मुहूर्त में जगता था। मैंने पहली बार महसूस किया था कि इस वक्त जो बयार बह रही होती थी, वह मुझे रोमांचित करती थी, मुझे दुलारती थी, मुझे प्यार करती थी और बांटती थी मुझे प्राण! ये वास्तव में ही प्राण वायु जैसी थी जो मेरे शरीर को स्वस्थ बनाती थी। और जब मैं होस्टल की छत पर चढ़ कर और कपड़े खोल कर तेल मालिश करता था तो मेरा शरीर न जाने मुझे कितने आशीष देता था। फिर मैं दंड बैठक निकालना आरम्भ करता था। पहले पहल तो मेरा शरीर खूब रोया था, पर फिर मैंने इसे मना लिया था। बाद में तो पसीना चुचाता रहता था और मैं गिन कर पांच सौ दंड बैठक निकाल जाता था!

पांच बजते बजते नल आ जाते थे। शरीर का पसीना सुखा कर मैं नल खोल कर उसके नीचे बैठ जाता था। खूब देर तक ठंडे पानी से नहाता था और मैं महसूसता था कि मेरा शरीर एक बार फिर मुझे धन्यवाद बोल रहा था!

इसके बाद मैं अपने इष्ट – स्वामी विवेकानन्द ओर स्वामी दयानंद के टंगे चित्रों को प्रणाम कर ध्यान पर बैठता। फिर प्राणायाम करता और अंत में गीता का एक पन्ना नियमानुसार पढ़ता! यह मेरा अपना एकांत था और था परम गुप्त!

इसके बाद तो मुझे खुशबू आ जाती थी कि मेस में महाराज ने खाना तैयार कर लिया है। खूब भूख लगती थी। घी की पीपी उठा कर मैं मेस मे होता। सब्जी दाल में नीबू निचोड़कर खूब सारा घी डालता और महाराज के बनाए गरम गरम फुल्कों को चट करता ही चला जाता!

शाम को मेरा मन मुझे मना लेता और सोहन की बगीची ले जाता! वहां जाकर मैं यमुना के उन अंत हीन बलुहे विस्तारों में भ्रमण करता जहां मुझे अनंत का आनंद आकर घेर लेता! यमुना का बहता परम पावन स्वच्छ जल मुझे बुलाता और मैं कपड़े खोल कर उसमें धंस जाता! मैं तैरता, डुबकियां लगाता और फिर यूं ही पड़ा पड़ा आनंद लेता रहता!

ये मेरा दूसरा अज्ञातवास था!

“यार राधे! मुझे अपने कपड़े रीफिट कराने हैं! है कोई जुगाड़ दर्जी का?” मैंने उसे पूछा था।

राधे हंसा था और हंसता ही रहा था!

“फेंक क्यों नहीं देते हो इनको?” राधे कह रहा था। “गऊ घाट पर रेडीमेड की नई दुकान खुली है। मैंने भी कपड़े खरीदने हैं! आओ न मेरे साथ!” उसका प्रस्ताव था।

“एक साइज जास्ती रख रहा हूँ बाबू साहब!” दुकानदार मुझसे कह रहा था। “आप का शरीर अभी तो ..” वह हंस रहा था। शायद उसे मेरा बढ़ता हुआ शरीर भा गया था!

और यही हुआ था जब मैं बॉम्बे सैलून में हेयर कट लेने पहुंच गया था!

“कौन सा हेयर कट लेंगे बाबू साहब?” बूढ़ा नाई पूछ रहा था। नया नया सैलून बनाया था – उसने। मॉडर्न था और हेयर कट के नमूने दीवारों पर टंगे थे। लेकिन मैं था कि निर्णय ही न कर पा रहा था!

“आप को मैं अमरीकन क्रू कट देता हूँ!” वह स्वयं ही बोला था। “बहुत जंचेगा आप पर!” वह हंसा था। “बड़ी अच्छी पर्सनेलिटी है – आपकी बाबू साहब!” उसने प्रसन्न होकर कहा था।

मेरा ये अमेरिकी क्रू कट पूरे कॉलेज़ में एक क्रेज बन गया था!

मैं छुट्टियों में बाजना लौटा था। जब घी की खाली पीपी मैंने मॉं श्री को दी थी तो बड़े ही लाढ़ से उन्होंने मुझे निहारा था। उनकी ऑंखों में जो खुशी के दीपक प्रदीप्त हुए थे, उन्हें मैंने भी देख लिया था। मुझे एक साथ याद हो आया था ..

“मौसी! आपके चार बेटे हैं और चारों के चार बेकार!” साहिब सिंह भाई साहब मॉं श्री को उलाहना दे रहे थे। “मेरे भी चार बेटे हैं! आप देखना कि मैं उन्हें क्या क्या बनाता हूँ?” उनकी घोषणा थी – जिसे मैं न भूला था और न मैं अपनी मॉं श्री के उस दरक गये सूने चेहरे को भूला था जिसने उन्हें अपार संताप दिया था!

लेकिन आज उनकी आंखों में उल्लास थे!

“जोर करने हैं?” शाम को मैं अखाड़ा पर यूं ही चला गया था तो मेरे परम मित्र प्रहलाद ने पूछा था।

“क्यों नहीं!” मैं तैयार था। “बहुत दिन हुए ..? मैं कहता रहा था। “जोर तो आजमा लेने चाहिये!” मैं हंस रहा था!

उस दिन पहली बार मैंने प्रहलाद को अखाड़े में उठा उठा कर पटका था! मुझे लगता रहा था कि मैं आज अपनी उस निराशा को पछाड़ रहा था जिसने मुझे कभी सुखा दिया था! मैं लड़ रहा था – अपनी उन तमाम नाकामियों से जिन्होंने मुझे रोंदा था और बेइज्जत किया था! प्रहलाद से नहीं, मैं तो आज अपने विगत से लड़ा था और मैंने बढ़ चढ़ कर दो दो हाथ किये थे और हिदायत दी थी कि भविष्य में मेरे सामने मत पड़ जाना .. वरना तो ..

“घर वालों ने अब की बार घी नहीं दिया!” प्रहलाद शिकायत करता रहा था, लेकिन मैंने ध्यान ही न दिया था!

अब सबल इरादों के साथ मैं मथुरा लौट रहा था!

“तेरा बेटा राजकुमारों सा लगता है!” काका जी ने मुसकान चुराते हुए मॉं श्री को बताया था। मैंने भी सुन लिया था। पलट कर मैंने मॉं श्री को देखा था। वो चुप थी – बिलकुल एक ज्वालामुखी की तरह शांत!

उस दिन मुझे अपनी मॉं श्री पर बहुत बहुत प्यार आया था!

वह इतवार का दिन था – मुझे याद है। हम सब मेस के सामने जमा थे। महाराज स्पेशल खाना बना रहे थे। अचानक भूप सिंह – कॉलेज़ का भीम बाहर आया था और मेस में जाने लगा था। मुझे लगा कि आज अच्छा मौका था जब मैं भूप सिंह का दिया उलाहना उतार सकता था!

“कुश्ती हो जाये?” मैंने भूप सिंह को पकड़ लिया था।

“नहीं यार!” उसने लटकी आवाज में कहा था। “मुझे बुखार आ रहा है!” उसने बहाना बनाया था।

लेकिन मैं था कि माना ही नहीं था। मैंने भूप सिंह को कंधों तक उठा लिया था और फिर मेस के साथ बहती सड़ांध में फेंक चलाया था! भूप सिंह काली कीचड़ में लथपथ जब बाहर आया था तो जमा चांडाल चौकड़ी ने खूब हंसी की थी। अब वह रोष में था। लेकिन मेरी ओर आने में संकोच कर रहा था और सीधा वह वार्डन साहब के बंगले पर भाग गया था!

“ये क्या बदतमीजी है?” हीरा लाल अग्रवाल – हमारे वार्डन साहब ने अपना कदीमी प्रश्न पूछा था।

सब चुप बने रहे थे। भूप सिंह कीचड़ में लथपथ खड़ा खड़ा मुझे ही देखे जा रहा था।

“इसको नाली में किसने फेंका?” हीरा लाल जी ने फिर से पूछा था।

“सर! कृपाल ने फेंका है मुझे नाली में!” भूप सिंह रुआंसा हो आया था। “किसी से भी पूछ लो!” उसने जमा लड़कों की ओर इशारा किया था।

“झूठ बोलता है सर!” में गर्जा था। “पूछ लो किसी से! मैं क्यों फेंकने लगा इसे नाली में? खुद ही गिरा था और अब ..”

“किसने देखा है?” हीरा लाल जी अब पूछ रहे थे, लेकिन उत्तर में बोला कोई नहीं था।

“महाराज से पूछो सर!” भूप सिंह ने राय दी थी।

“नहीं नहीं बाबू जी!” महाराज कह रहा था। “मैं तो सब्जी बना रहा था! मुझे कोई खबर कहां है?” महाराज का उत्तर था।

अब क्या करते वार्डन साहब?

“बेवकूफ!” उन्होंने भूप सिंह से कहा था। “जाकर नहा लो!” वह कह कर चले गये थे!

हम सब खूब हंसे थे और भूप सिंह नहाने चला गया था!

निर्बल जब राम को भज रहा होता है तभी शक्ति शालियों को सलाम पड़ रहे होते हैं!

मेजर कृपाल वर्मा

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