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नीला आसमान

” कल सुबह चार बजे निकलते हैं..  फ़िर! ..चलो! अब तुम लोग चलकर सो जाओ! नहीं तो नींद नहीं खुलेगी..Goodnight!”।

” Goodnight माँ! Goodnight पिताजी!”।

अगले दिन सवेरे कार से हमारे परिवार का.. हरिद्वार जाने का कार्यक्रम बना था.. अक्सर हम सभी कहीं भी जाना हुआ करता था.. तो by रोड अपनी ख़ुद की गाड़ी से ही जाया करते थे।

अब long run का मामला होता था.. तो सारी तैयारी वगरैह लिस्ट बना पहले ही कर लिया करते थे.. क्या-क्या सामान  संग रखना है.. वगरैह-वगरैह! और सवेरे चार बजे निकलने की planning भी हो जाया करती थी।

” तेल-पानी चेक कर लिया.. भाईओं!”।

” जी पिताजी!”।

भाई साहब का जवाब हुआ करता था.. गाड़ी में तेल-पानी सब ठीक-ठाक है.. कि नहीं! यह देखने की ड्यूटी उन्हीं की थी.. उन दिनों एम्बेसडर कार का बड़ा चलन था.. वही हुआ करती थी.. हमारे पास।

” Good!”

गाड़ी की कंडीशन की ok रिपोर्ट सुन.. पिताजी की भाई साहब के लिए.. शाबाशी हुआ करती थी।

” सामान सारा है.. गाड़ी में कुछ भूले तो नहीं! तौलिया साबुन, पानी.. वगरैह-वगरैह!’।

” सब चेक करके रखा है! कुछ नहीं भूले!”।

” चलो! Well done!”।

सामान वगरैह की ok रिपोर्ट हमारी और हमारे छोटे भाई की हो जाया करती थी.. और पिताजी का एक शाबाशी भरा शब्द हमारे लिए भी हो ही जाया करता था।

 माँ की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती थी.. केवल आगे बैठ चलते वक्त सफ़र में मस्त गप्पें हांकना होता था।

” चलें भाई!”।

” चलिए!”।

और हमारी गाड़ी सवेरे के चार बजे के सन्नाटे में स्टार्ट हो.. सड़क पर आ जाया करती थी।

” रु! रु.. रु!”।

” ठीक किया न चार बजे ही निकल लिए.. नहीं तो साला जमकर ट्रैफिक हो जाता है.. सड़क पर!”।

पिताजी रु.. रु गुनगुनाते हुए.. और ख़ुश होते हुए.. highway की ड्राइविंग के मज़े लेते हुए हमसे कहा करते थे।

” हाँजी! हाँजी! .. फ़िर ट्राफिक हो जाता!”

हम पीछे वाली सीट पर कार के खुले शीशों में से आ रही मस्त ताज़ी और ठंडी हवा का आनन्द लेते हुए.. कहा करते थे।

और मस्त गप्पों के सिलसिले के साथ.. हवा से बातें करती हुई.. हमारी गाड़ी highway पर हुआ करती थी।

” हाँ! भई! देखना पुरकाजी कितना रह गया!”।

यह सवाल कि कौन सी जगह कितनी दूर रह रही है.. सबसे महत्वपूर्ण हुआ करता था.. और हमारे सारे सफ़र का महत्वपूर्ण हिस्सा भी! जो हम खिड़की के पास बैठ कर.. आने वाले माइलस्टोन को देखकर बताते चलते थे.. लेकिन जो खिड़की वाली सीट पर बैठा होता था.. वही यह काम करता चलता था।

” हम्म!.. 40 Km रह गया पिताजी!”।

” Good! बस! अभी पहुँचे! ऐसा करते हैं.. नाश्ता पुरकाजी निकालने के बाद ही कहीं ढाबे-शाबे पर आराम से बैठ कर खाइयेंग.. इस बहाने थोड़ा ट्रैफिक से भी बच जाएंगे! और फ़िर तो बाकी का रास्ता तय हो ही जाएगा”।

और चलते-चलते उजाला हो जाता.. और नीला आसमान दिखने लग जाता था.. हमारी गाड़ी चाय-नाश्ते के लिए ढाबे की तरफ़ बढ़ने लगती थी.. आज सवेरे कल रात की ज़बरदस्त बारिश के बाद जब मेरी नींद खुली.. और मैं कमरे से बाहर अपनी छत्त पर आकर खड़ी हुई.. तो मेरी नज़र नीले और साफ़ आसमान की ओर गयी.. नीले खुले आसमान में विचरण करते हुए. पक्षियों ने मुझे आज अपने उस प्यारे और यादगार सफ़र की याद दिला दी.. यह आसमान बिल्कुल वैसा ही नीला और साफ़ था.. और उसी याद को ताज़ा कर रहा था.. जब हम सब एकसाथ ढाबे की मेज़ पर बैठ.. सवेरे के नाश्ते का आनंद लिया करते थे।

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