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Narendra Damodar Modi

युग पुरुषों के पूर्वापर की चर्चा

भोर का तारा

उपन्यास अंश :-

“मैं लडूंगा , मित्रो !” मैं दहाड़ता . “मैं जंग के मैदान में कूदूँगा ज़रूर !! देखलेना …..”

अपने सोच और सपनों से मेरी दोस्ती हो चुकी थी. मैं अकेला नहीं था. मैं महसूसने लगा था कि …..कुछ है …जो मेरे इर्द-गिर्द मंडराता रहता है ….मुझे समझाता रहता है ……मुझे अग्रसर करता रहता है ! अँधेरा तो था ….गरीबी का अँधेरा , अशिक्षा का अँधेरा ….परिवेश का अँधेरा …., पर एक प्रकाश भी था …एक अनाम सा प्रकाश …जो निरंतर मेरी आत्मा को सींचता रहता ….मुझे जाग्रत बने रहने को कहता .

“मैं तुम्हें …..बाल स्वयं सेवक के रूप में …..संस्था का सहयोग करने की सलाह दूंगा , नरेन्द्र !”  लक्ष्मण राव मुझे समझा रहे थे. “तुम ….विलक्षण हो …..होनहार हो ….विचारवान हो ..! मेरा अपना मत है कि …तुम्हें एक विचार धारा से ….जुड़ जाना चाहिए .” उन का आग्रह था – एक अनुरोध था …एक स्पपष्ट  और बेबाक राय थी. “कोई जोर-जुलम …नहीं ..करता , पर ….” वह रुके थे.

“पर ….ये सब है क्या ….?” मैंने यों ही पूछा था. आग्रह मुझे भा गया था. एक ही लम्हे में मुझे अपना लंबा रास्ता दिखाई दे गया था. पल-छिन में मुझे सब सूझ गया था. पर मैं जानना तो चाहता ही था. “ये सब दौड़-भाग किस लिए है ….?” मैं मुस्कराया था. “कोई उल्लू तो नहीं बना रहा ….?” हंस कर पूछा था , मैंने .

“ये  लोग उल्लू नहीं …..इंसान बनाते हैं , नरेन्द्र ! जागरूक इंसानों की संरचना करते हैं ….जो अपना मरना-जीना जाने . एक ऐसे समुदाय की संरचना करते हैं – जो एक दूसरे के सुख-दुःख बांटे ….! इंसान अकेला नहीं रह सकता , न ….? इसलिए ……”

“मैं तो अकेला ही हूँ ….अकेला ही मेरा सोच है ….अकेला ही ……मैं ….!”

“नहीं ! एक चना कभी भाड़ नहीं फोड़ सकता , नरेन्द्र ! मैं तुम्हारे सोच और संघर्ष की थाह ले चुका हूँ . तुम्हें एक संगठन की दरकार होगी , बेटे ! और …अगर ……”

“क्या देंगे …., ये लोग …?” मैने  फिर पूछा था. “मुझे क्या-क्या लाभ होंगे ….?” मेरे प्रश्न थे. “धन मिलेगा ….?” मैंने एक किलक को लील कर पूछा था.

‘धन’ और ‘धनवान’  ये दो ही मुद्दे थे जो अब तक मेरी आँख की किरकिरी बन चुके थे. ‘धन’ होना ही सब कुछ होना था …, मैं उन दिनों सोचने लगा था. ‘धन’ ही तो था  …जो हमारे परिवार के पास नहीं था. ‘धन’ ही तो था ….जिस के लिए मेरे बाबा ….धक्के खाते रहते थे . ‘धन’ ही तो था …जिस की हम सब को परिवार में ज़रुरत थी. ‘धन’ था नहीं तो ….न परिवार में चैन था …..न शान्ति ! एक उजाड़ वियावान में हम सब बेगानी रूहों से रह रहे थे.

जिन के पास ‘धन’ था …उन के मज़े थे ….आनंद था ….आमोद-प्रमोद था …एक शान-शौकत थी – उन की ! सब उन की ओर ललचाई आँखों से देखते थे. वह कुछ भी खरीद लाते थे ….तो …एक चर्चा चल पड़ती थी. उन के कपड़ों की और ….जूतों तक की चर्चा चलती थी. उन के शौक ….भी चर्चा में होते थे. उन के अपराध – जैसे कि ….शराब पीना …या कि जुआ खेलना ….और …और हाँ , औरतों के शौक ….क्षम्य थे. पुलिस तक उन पर हाथ न डालती थी.

तब ‘धनवान’ होना ही मुझे कुछ होना लगता था !

“धन नहीं मिलेगा …..!” दो टूक उत्तर था , लक्ष्मण राव का. उन का स्वर कठोर था. उन के तेवर भी बदल गए थे. ‘धन’ की मांग कर जैसे मैने  कोई गुनाह कर दिया था – ऐसा लगा था ! “तुम्हें ‘धन’ की तलाश है – तो स्वयं-सेवक मत बनो !” उन का सुझाव था. “‘धन’ कमाने का साधन नहीं है , यह !” वह उदास हो कर बोले थे.

“तो कैसी कमाई होगी ….?” मैंने भोले स्वभाव में पूछा था.

“ऐसी  कमाई ….जैसी गाँधी जी  ने की है ….नेहरू जी कर रहे हैं ….और जैसे कि संत-फकीर करते हैं …!” उन का सधा और सीधा उत्तर था.

मैं सोच में पड  गया था. लक्ष्मण राव कोई ऊँची बात कर रहे थे ….एक दुधमुंहे बच्चे को ….ऐसी सौगात दिखा रहे थे ….जिस के अर्थ समझना उस की बिसात के बाहर था.

क्रमशः –

 

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