क्या नहीं था – उस घर मैं , वह सोच बैठी थी. ‘खिलौने’ , उसे अचानक आभास हुआ था. उन के घर जैसे दो अनूठे खिलौने वहां थे कहाँ ….? झांकी से उस ने सीधा सवाल किया था. “बुरा न मानो, झांकी ! …..तुम्हारे घर मैं खिलौने ….., मेरा मतलब कि …….”
“हैं ……, यार !” झांकी ने उसे बांह से पकड़ा था. “चल , देख !!” वह हंसी थी. “पूरा का पूरा …कप-बार्ड भरा है ! सब के सब विदशी खिलौने हैं ….मेरी मासी ….” उस ने पांखी को प्रभावित करना चाहा था.
“नहीं , रे !” पांखी अवहेलना के स्वर मैं बोली थी. “मेरा मतलब …..’खिलौनों’ से था ….उन खिलौनों से जो हमारे घर मैं ….’गुटुर-गूं, गुटुर-गूं ‘ करते ख़ुशी की गूंजें भरते रहते हैं ! हमें कहानियाँ सुनाते हैं …किस्से बताते हैं …..और तो और …मेरी दादी ….” रुकी थी पांखी. “दुलारी है – उन का नाम ! पर दद्दा उन्हें …’प्यारी’ कह कर बुलाते हैं , हा हा हा …..”
“और दद्दा का नाम ……?” झांकी जिज्ञासा वश पूछ रही थी.
“भौंदू ….!” तनिक शर्मा कर कहा था – पांखी ने . “कहते हैं – उन दिनों इसी तरह के नाम चलते थे. पर ….मेरे दद्दा ….प्योर ….एक दम पवित्र मिटटी से बने हैं …., झांकी ! प्योर …काईंड ….आँफ …ए …मैन …, यार !! कभी झूंठ नहीं बोलते …..”
“सच …..?”
“सच, यार ! और हम से भी कहते हैं ……’सदा सच बोलो ‘ ….”
“झूंठ ….! कभी हो ही नहीं सकता , पांखी …!” बिगड़ गई थी – झांकी . “मेरे पापा कहते हैं – झूंठ – सच ….सब झूंठ है ! मौका जो मांगे वही बोलो ….!!”
पांखी तनिक निरुत्तर हुई थी. वह जानती थी कि झांकी के पापा ….गन-मान्य व्यक्ति थे. समाज और देश मैं उन का नाम व्याप्त था.
“कहाँ से आये हैं – ये खिलौने ….? झांकी ने पूछा था.
“गाँव से ….! हमारा गाँव है ….न ….? वहां ……..”
“मैं भी ……..पापा से कह कर ….गाँव से मगवालूंगी ….तेरे जैसे ही दो खिलौने …’दुलारी’ और …’भौंदू’…..!” वह हंसी थी. “मेरे …पापा ….”
“महान हैं ….., मैं जानती हूँ !” पांखी ने स्वीकारा था.
लेकिन दूसरे ही दिन स्कूल में झांकी का सूजा हुआ मुंह देख पांखी रो पड़ी थी!!
“ये क्या हुआ ….?” उस ने झांकी से पूछा था.
“माँ ने मारा है ….!!” झांकी सुबकने लगी थी. “मैंने ..जब पापा से ….गाँव से …तेरे जैसे खिलौने लाने की जिद की तो ….!”
“और पापा ….?”
“वो तो हँसते ही रहे थे ….!!” झांकी अब जोरों से रो पड़ी थी .
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