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खानदान 102

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“ तेरे बाप ने कमाए थे, क्या…???”

रमेश को विनीत साढ़े-चार लाख सफ़ारी के देकर घर लेकर आ गया था,  अब क्योंकि रमेश के लिये पैसे फैक्ट्री से निकले थे.. तो घर में तो हंगामा होना ही था। रामलालजी तो दुनिया में अब रहे नहीं थे, बटवारा कोई भी वो करके नहीं गए थे.. इसलिये विनीत और रमा के हिसाब से सारे पैसे के मालिक अब वही थे। रमेश के लिये दिया हुआ पुलिस स्टेशन में पैसा विनीत के हिसाब से उसकी कमाई थी, इसलिये रमा आपे से बाहर हो गई थी, और दोनों पति-पत्नी में जमकर कहा सुनी भी हो गई थी.. विनीत से रमा के पैसों को लेकर ताने बर्दाश्त नहीं हुए, और रमा को थाने में दिये हुए पैसों के पीछे उसके मायके तक को ताना दे डाला था.. कि दिये हुए पैसे उसके बाप ने कमाए थे.. क्या!

अब रमा उन्हीं पैसों को लेकर दर्शनाजी के सामने भी शुरू हो गयी थी, दर्शनाजी से रमा के पैसों को लेकर ताने बर्दाश्त नहीं हुए थे, और वे रमा की बातों को बीच में ही काटकर बोल पड़ीं थीं।

“ रमेश का भी हिस्सा से!”।

उन्होंने थाने में दिये हुए.. पैसों पर रमेश का भी हिस्सा बताया था।

एक तरफ़ रामलालजी की छोड़ी हुई संपत्ति थी, दूसरी तरफ़ तीन हिस्सेदार भी खड़े थे.. लेकिन सबके हिस्से का मालिक आज विनीत बना हुआ था। झगड़ा तो अब हिस्से का ही था.. जो घर के सदस्य खुल कर नहीं कह पा रहे थे.. और अब तो माहौल गर्म होना ही था.. क्योंकि रमेश के नाम का पैसा जो निकल गया था। रमेश घर आने के बाद थोड़ी देर अपने माँ और भाई के साथ बैठने के बाद सुनीता के पास ऊपर पहुँच गया था। सुनीता के रमेश को थाने से निकालने के लिये गहनों वाली बात दर्शनाजी ने रमेश को बता दी थी। इसलिये रमेश ने ऊपर जाते ही सुनीता से कहा था,” ये गहनों वाली बात क्यों की थी.. पैसे नहीं देते फ़िर बताता इनको! हिस्सा है! मेरा!”।

रमेश वैसे भी पुलिस-स्टेशन से आने के बाद शक्ल से बिल्कुल भी दुःखी नहीं लग रहा था। वहाँ से आकर घर में ऐसे बैठा था.. मानो कोई बहुत ही इनाम का काम करके लौटा हो! न ही उसे घर से साढ़े-चार लाख रुपये निकलने का कोई भी अफ़सोस था। अब रमेश को अफ़सोस होता भी क्यों..  आख़िर फैक्ट्री और अपने पिताजी की जायदाद में हिस्सेदार जो था। रमेश की सोच के हिसाब से विनीत ने जो पैसे थाने में भरे थे, वो कोई अहसान नहीं था.. बल्कि उसका हिस्सा बनता था।

“ आज- आज तो रेन दे है! रमेश!”।

रोज़ की तरह से शाम का समय हो गया था.. रमेश बाबू रंजना से मिलकर अपनी वीर गाथा सुनाने को तैयार हो रहे थे.. नीचे उतरते वक्त माताजी ने दिखावे के लिये अपने लाड़ले सुपुत्र को टोकते हुए, कहा था.. आज तो कम से कम रहने देता.. रमेश!

दर्शनाजी केवल दिखावे के लिये रमेश को रंजना के पास जाने से रोकना चाह रहीं थीं, पर मन ही मन अपने बेटे को बाहर जाता देख, ख़ुश थीं। उन्हीं की आँख का इशारा पा कर ही तो रमेश स्वतंत्र रूप से जो करना चाहता था, वो कर रहा था.. बेवकूफ़ न होते हुए भी रमेश समय के हाथ की कठपुतली बना हुआ था। खैर! जो भी हो! रमेश अपनी आत्मसंतुष्टि के लिये रंजना से मिलकर घर आ गया था। घर आने के बाद सुनीता को हमेशा की तरह से रमेश का दिमाग़ पलटी खाया हुआ दिखाई दिया था। घर में घुसते ही तैश में आकर रमेश एकबार फ़िर सुनीता पर चिल्लाया था,” वो ही तो है! मेरी! बैग भर के नोट और वकील को लेकर आने वाली थी!”।

रमेश ने रंजना के लिये कहा था।

“ हाँ! सब कहने वाली बातें हैं, कोई किसी का नहीं होता! पैसों का बैग लेकर थाने में क्यों नहीं पहुँची.. पैसा तो घर से ही निकला है.. जब सारे काम हो गये, तब उसे वकील और नोटों का बैग याद आ रहा है!”।

“ अरे! तुझे क्या पता.. सब करती वो! मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूँ”!।

रमेश सुनीता से अंत तक सहमत नहीं हुआ था.. कि रंजना केवल दिखावा कर रही थी..और रमेश और सुनीता की बहस रंजना को लेकर जारी थी।

सफ़ारी गाड़ी भी पुलिस वालों ने थाने में रखवा ली थी.. और नोटों से भरा बैग भी रखवा लिया था। करोड़पतियों के घर से एक गाड़ी कम हो गई थी.. चाहे कुछ भी हुआ हो! और कुछ भी हो! पर रमेश पर कोई भी सर्दी गर्मी नहीं थी.. मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक ही थी.. रमेश का दिमाग़ रंजना के आगे जाकर रुक जाता था, जब तक कि उसके दिमाग़ की चाबी को आगे की तरफ़ नहीं घुमाया जाए। रमेश नामक चाबी वाले खिलौने की चाबी आजकल मम्मीजी के हाथ में कम और उनकी मुहँ बोली पत्नी या फ़िर समाज की नज़रों में रखैल रंजना के  हाथ में थी।

“ चोर से यो! “

अब किसको चोर की उपाधि से सम्मानित किया गया था। कुछ भी कहो! रामलालजी के परिवार में भी उम्दा कलाकारों के संग गजब का नाटक चल रहा था.. इसी नाटक का आप भी हमारे संग हिस्सा बने रहिये और हमेशा की तरह जुड़े रहिये खानदान के साथ।

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