Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

कानू और नन्हें किराएदार

Image by OpenClipart-Vectors on Pixabay

पेड़- पौधों का तो हमें बचपन से ही शौक था.. सिर्फ़ देखने का.. लगाने का नहीं। बड़े हुए, ब्याह के बाद ही भोपाल आ गए थे। संयुक्त परिवार होने के कारण हमें हमारे सास-ससुर ने ऊपर कमरा बनवा कर दे दिया.. साथ में एक बड़ी और खुली छत्त भी मिली। अब भोपाल की मिट्टी और मौसम अनुकूल होने के कारण और आसपास के घरों में सुन्दर फूलों के बगीचों ने हमें भी माली बनने पर मजबूर कर दिया.. और अब हमारा पौधे देखने का शौक ही नहीं बल्कि लगाने का जाग उठा था। हमनें अपनी बड़ी सी छत्त को ख़ाली न रहने देकर उसे तरह-तरह के फूलों के पेड़ों और अन्य कई तरह के पौधों से भर दिया था। फ़िर हमारे पास आई.. हमारी प्यारी और सुन्दर कानू.. जिसने हमारे जीवन के ख़ाली स्थान को भी भर दिया.. और रंगीन पौधों के साथ ही हमारी छत्त पर रौनक करते हुए.. चार-चाँद लगा डाले।

तितली और नन्हीं चिड़ियों से तो प्यारी सी दोस्ती हो ही गई थी.. हमारी कानू की.. और कानू भी अपने इन छोटे और प्यारे से दोस्तों संग मस्त रहने लगी थी। अब हुआ यूँ.. कि एक बोगनवेलिया की टहनी बहुत ही लम्बी और मज़बूत हो गई थी.. एक बार तो हमनें सोचा था.. कि इसकी कटिंग कर देते हैं.. फ़िर दिमाग़ से बात उतर गई थी। एक दिन अचानक हमनें देखा, कि टहनी से एक धागा सा लटका हुआ है.. खैर! देखकर हम भूल गए.. और बात को भूल गए। फ़िर कुछ दिन बाद जब हमनें उस टहनी को ध्यान से देखा और अपनी कानू को भी वहीँ खड़ा देखा.. तो समझ में आया.. कि हमारी छत्त पर एक नए घोंसले के बनने की शुरुआत उस बोगनवेलिया की टहनी पर हो चुकी थी।

वाकई में छोटी-छोटी दो नीले रंग की चिड़िया तिनका-तिनका कर बहुत ही सुंदर घोंसला बना रहीं थीं। अब तो हमारी कानू को भी नया काम मिल गया था। कानू उन चिडियों की ड्यूटी पर रहने लगी थी.. जैसे ही चिड़िया उड़कर कोई नया तिनका या घास लेकर आती.. कानू तुरन्त दौड़कर उनके पीछे पहुँच जाती.. ज़बर्दस्ती चिड़ियों को देख उन पर ऊँची जम्प लगाती.. जैसे उन्हें पकड़ ही लेगी.. जब कानू के हाथ कोई सी भी चिड़िया नहीं आती.. और अपने घोंसले का काम कर फ़ुर्र से उड़ जाती.. तो कानू का चिढ़ कर भौंकना और भी तेज़ हो जाता था। ऐसा लगता था, मानो कानू हमसे कह रही हो,” देखो!.. न माँ!. हमारे यहाँ ही आकर रहना चाहती हैं.. और हमें अपने साथ अपने घर बनाने में भी शामिल नहीं कर रहीं हैं”।

गिने दिनों में दोनों प्यारी सी चिड़ियों का उनकी मेहनत से सुंदर सा घोंसला तैयार हो गया था। और दोनों छुटकी-छुटकी चिड़िया उसमें आकर बैठ भी गईं थीं। हैरानी की बात तो यह थी… कि हमारी छुटकी सी प्यारी सी कानू उन चिड़ियों को देखकर ज़्यादा न भौंकी थी.. बल्कि उनके घोंसले के नीचे खड़े होकर अपनी फ्लॉवर जैसी पूँछ हिलाकर उन्हें उस टहनी पर रहने की परमिशन दे दी थी। कानू को अपनी ये दो छोटी सी सहेलियाँ पसन्द आ गयीं थीं। बस! कानू-मानू की इतनी सी शर्त थी.. कि किराए के बदले वो कानू संग अपने घोंसले से निकलकर थोड़ी सी देर खेलें।

कानू को पहली बार अपने नन्हें किराएदार बहुत पसन्द आए थे.. कुछ दिन चिड़िया उस घोंसले में रहकर , घोंसला छोड़कर उड़ गयीं थीं.. पर प्यारी कानू को वो प्यारे से किराएदार बहुत याद आये थे.. कानू ने उनके घोंसले के नीचे बैठकर बहुत दिनों तक उनके लौट के आने का इंतेज़ार भी किया था..  पर हमारी कानू तो शुरू से ही समझदार है.. समझ गई थी.. कि,” छुटकी- मटकी दीदी ने कोई और अपना घर खरीद लिया होगा.. आख़िर कब तक रहतीं हमारी छत्त पर किरायेदार बन कर”।

अब कानू ने उन चिड़ियों को अपनी यादों में रखते हुए.. अपने नए दोस्त बना लिये थे.. और उनके साथ खेल-कूद में मस्त हो गई थी। और एक बार फ़िर उन नन्हें और प्यारे से अपने किराएदारों को याद करते हुए.. जीवन की पटरी पर हम सब चल पड़े थे.. प्यारी कानू के साथ।

Exit mobile version