अविकार को नींद नहीं आ रही थी। आज नंगी जमीन उसके बदन में चुभ रही थी।
आज फिर पत्तल पर जमीन पर बैठ कर खाना उसे खला था। आज वो कुमार गंधर्व न रह कर अविकार था – अजय अवस्थी का इकलौता बेटा – अविकार! वही अविकार जिसे कभी ताती बयार ने छूआ तक नहीं था। वही अविकार जिसकी हर मांग बाहर आने से पहले पूरी हो जाती थी और वही अविकार जो अवस्थी इंटरनेशनल का वारिस था – अकेला वारिस!
“हुआ क्या है मुझे?” अविकार ने करवट बदलते हुए स्वयं से पूछा था।
“अंजली ..!” सीधा उत्तर आया था।
“कौन है ये अंजली? कहां चली गई? और वो अंजली को खोज क्यों रहा है। कौन था अंजली का श्याम? किसे पुकार रही थी अंजली?”
“तुम्हें ही तो टेर रही थी! वो तो अपने खो गए अविकार को ही तो खोज रही थी!”
“गलत! झूठ! ये मेरा भ्रम है। और अंजली भी एक भ्रम है। सच्चाई केवल कुमार गंधर्व है। वैराग्य ही जीने की सच्ची राह है। भक्ति ही अपार आनंद का स्रोत है – औरत नहीं! माया है – औरत! औरत सारे दुखों का मूल है। बहको मत कुमार ..”
लेकिन अविकार का मन आज न जाने क्यों बावला हो गया था। सारी साधना से अलग खड़ा हो वह केवल अंजली को ही आवाजें दिए जा रहा था!
उस विभ्रम में गहन तिमिर के आर पार अंजली की परछाइयां डोल रही थीं।
“मेरे श्याम! मेरे घनश्याम!” अंजली उसे टेर रही थी। उसे बार बार बुला रही थी। “तू मेरा परमात्मा – तू ही मेरा प्राण!” ये सारे संबोधन उसी के लिए तो थे।
अचानक अविकार अंजली की आंखें पढ़ने लगा था। उनमें अविरल प्रेम का सागर उसे बहता दिखाई दिया था। अंजली प्यासी थी – उसने महसूस किया था। अपने पपीहा को टेरती अंजली बादलों से बरसने का आग्रह कर रही थी।
अविकार अवश था। वह अपने संयम को खो बैठा था। उसका मन उसे अंजली की परछाइयों को पकड़ने के लिए आदेश दे रहा था – बार बार!
मुरली की घुन सुन अविकार अचेत हुआ अब अंजलीमय हो गया था।
अर्ध रात्रि का प्रहर था। सारा आश्रम सोया पड़ा था। वही एक अकेला भक्त था जो अब भी जाग रहा था। अंजली का विरह सहना उसे कठिन लग रहा था। लेकिन उसे तो अंजली का अता पता तक मालूम नहीं था। फिर वो अंजली की परछाइयों से क्यों जूझ रहा था? आज उसकी समझ में ही न आ रहा था ..
“कैसे खोजोगे अंजली को?” प्रश्न था जो अविकार के सामने आ खड़ा हुआ था।
“तुम तो ब्रह्मचारी हो! तुमने तो वैराग्य का व्रत लिया है। भक्तराज हो तुम! फिर तुम क्यों अंजली के लिए अधीर हो रहे हो?”
“मैं अविकार हूँ! छोड़ दूंगा ये आश्रम अंजली के लिए! मेरा सर्वस्व अब अंजली ही है!” अविकार उठ कर बैठ गया था। “पा कर रहूंगा अंजली को – देख लेना!” उसने अपना इरादा दोहराया था। “मैं कोई भक्त राज नहीं हूँ!” वह साफ नाट गया था।
अविकार ने जैसे एक जंग जीत ली थी। हारा थका वो लंबा जमीन पर लेट गया था और अचेत निद्रा की गोद में जा बैठा था।
“क्या हुआ भक्त राज! आज तो वक्त से जगना ही भूल गए!” शंकर था – जो अविकार को जगा रहा था।
“वो कौन थी शंकर? कहां चली गई?” अविकार ने अंगड़ाई लेते हुए शंकर से पूछा था।
“किसी बहुत बड़े बाप की बेटी है!” शंकर बता रहा था। “कार में आई थी – बहुत बड़ी लंबी चौड़ी कार थी! चली गई!”
“कहां गई?”
“अपने घर!”
“लेकिन कहां?”
“मुझे क्या मालूम!” शंकर हंसा था और चला गया था।
अपने अरमान की खोज में उलझा अविकार शर्मिंदा हो गया था। शंकर से उसे पूछना नहीं चाहिए था शायद!
फिर एक बार राह भूल गया था अविकार – जीने की राह!
मेजर कृपाल वर्मा

