चंद्र प्रभा में डुबकी लगाना और लंबे पलों तक पानी में पड़े रहना अविकार को अच्छा लगने लगा था। पेट भर पानी पीने से उसे स्वास्थ्य लाभ हुआ लगा था। शरीर खुलने लगा था और मन अचानक ही प्रसन्न रहने लगा था।
आस पास के रमणीक कुंजों और लता गाछाें के झुरमुटों में अविकार अकेला ही बैठने लगा था। अंजाने में उसका मन पेड़ पौधों के साथ जुड़ने लगा था। एक अंजान सा साम्राज्य स्थापित हो गया था। वैसा ही संबंध था जैसा कभी अजय अवस्थी और अमरीश अंकल के दोनों परिवारों के बीच स्थापित हो गया था।
अविकार की आंखों के सामने पूरा विगत आ बैठा था। एक ऐसा संसार उजागर हुआ था जो खुशियों से भरा पूरा था। सब कुछ तो था – उस संसार में।
दो गाढ़े मित्र थे – जिनकी दांत काटी रोटी थी। दो बिजनिस पार्टनर थे – जो एक दूसरे के हित की सोचते थे। दो ऐसे व्यापारी थे जिन्होंने चंद दिनों में ही आसमान छू लिया था। दो थीं उनकी पत्नियां – मनीषा और सरोज जो सगी बहिनों से भी ज्यादा सगी थीं। उनके दो बच्चे थे अविकार और अंजली – जो दोनों अच्छे दोस्त थे और साथ साथ खूब खेलते थे। साथ साथ ही क्लब और पार्टियों में जाना, पिकनिक और विदेशी यात्रा पर प्रस्थान करना – दिनचर्या में शामिल था उनकी। प्रेम सौहार्द अपनापन और आदर सत्कार सभी अपने निज के तिज स्थान पर थे।
वो एक अनूठा ही आनंद लोक था – अविकार ने महसूसा था।
“मैं अविकार को इंग्लैंड भेज रहा हूँ।” अविकार – अजय अवस्थि – अपने पापा की आवाजें सुन रहा था। “मैं नहीं चाहता अमरीश कि ये यहां रह कर ..”
“यहां क्या खोट है, भाई जी?” सरोज ने पूछा था।
“यहां रह कर बच्चे बेवकूफ बन जाते हैं, भाभी जी!” हंस कर बोले थे – अजय अवस्थि। “मैंने तो देखा है इंग्लैंड में रह कर। मैं तो कहूंगा कि दुनिया की श्रेष्ठ कल्चर अगर कहीं है तो इंग्लैंड में जाकर देखो।”
“इट्स ए फोबिया सर!” अमरीश बीच में बोला था। “भारतीय संस्कारों का तो आज पूरा विश्व लोहा मान रहा है!” मैंने तो अंजली को वनस्थली में भेजने का निर्णय लिया है।” उन्होंने भी घोषणा की थी। “कहते हैं कि जयपुर में ..”
“किस्सा छोड़ो भाई!” मानुषि ने सुलह सफाई कराई थी। “न कुछ अच्छा होता है न कुछ बुरा। ये तो अपना अपना नजरिया होता है बस!”
इंग्लैंड जाने से पहले वह अंजली से नहीं मिला था – उसे याद आया था।
मम्मी पापा की भयंकर एक्सीडेंट में हुई मौत ने उसे बुरी तरह से हिला दिया था। अस्त व्यस्त हालत में वह भारत लौटा था तो उसे उम्मीद थी कि सरोज मौसी की शरण तो मिलेगी ही। उसे अमरीश अंकल पर भी पूरा भरोसा था। उसे तो ..
“दोस्त बनकर पीठ में छुरा भोंकने का चलन नया नहीं है अवि!” गाइनो के कहे वो शब्द उसके तन मन के पार चले गए थे। न जाने कहां से और कैसे स्नात घृणा का समुंदर उसके मन प्राण में भरता ही चला गया था।
उन पलों में पूरी जिंदगी ही एक पाखंड लगी थी उसे और गाइनो के साथ शराब के नशे में धुत होकर उसने अपनी मंजिल खो दी थी।
“तो क्या दोनों परिवारों का वो प्यार और सौहार्द मात्र एक दिखावा था – ड्रामा था? तो क्या धन दौलत ही सब कुछ होता है? तो क्या गाइनो भी ..?” अविकार ने आज पहली बार अपनी जीवनदायनी चंद्रप्रभा से प्रश्न पूछा था।
चंद्र प्रभा शांत थी और शांत ही बहती रही थी। वहां से कोई उत्तर नहीं आया था – अविकार के प्रश्न का!
“तो क्या मैं ही निरा उल्लू हूँ ..?” अविकार ने अब स्वयं से प्रश्न पूछा था। “अपने जीने की राह तक नहीं खोज पा रहा हूँ ..?”
इस बार शांति भंग हुई थी। ऊपर डाल पर बैठा उल्लू उढका था और उड़ गया था।
मेजर कृपाल वर्मा

