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जीने की राह उनचास

मैं गुलनार और उसके परिवार के लिए मनहूस सिद्ध हो गया था।

जो भी अशुभ या अन्यत्र घट जाता था उस सबके लिए पव्वा ही जिम्मेदार था। परिवार की आन बान शान को डुबोने का जुर्म केवल ओर केवल मुझे ही था। मैं ही था जिसकी वजह से बबलू की सगाई टूटी थी और ..

“वो बहुत अच्छे लोग थे, मां!” बबलू को मैंने कहते सुना था। “अगर रिश्ता हो जाता तो हमारे खूब काम निकल जाते!”

“हो गया उस लड़की का रिश्ता?” गुलनार अचानक पूछ बैठी थी।

“तभी हो गया था!” बबलू बता रहा था। “इन लोगो के लिए क्या मुसीबत है मां!” बबलू टीस आया था। “हम लोग तो .. बस ..” उदास था बबलू।

बनवारी को भी अब मैं बुरा लगने लगा था।

“उधार नहीं दोस्त!” पव्वे के लिए गिड़गिड़ाते मुझसे साफ कहा था बनवारी ने। “उधार दोस्तों के लिए नहीं दोस्त!” वह हंसा था। “खूब नोट कमाती है तेरी जोरू!” बनवारी तनिक बेशर्मी से बोला था। “अरे, मांग ले तू भी अपना ..”

बहकाना चाहता था मुझे बनवारी!

लेकिन जब पव्वे की तलब ने मुझे घावला-बावला कर दिया था तो मुझसे रहा न गया था। एक बार तो मन आया था कि कहीं से कुछ चुरा कर ले आऊं और बनवारी के सर मार दूं। लेकिन फिर मैं गुलनार के सामने दयनीय मुद्रा में आ खड़ा हुआ था। वह मुझे बहुत देर तक देखती रही थी – अपलक! फिर मेरी मांग को भांप कर उसने अंतरवीथी से नोटों का बंडल निकाला था और मुझे दे दिया था। मैं गुलनार को देखता ही रह गया था।

“अब न लौटना!” क्या यही संदेश नहीं था गुलनार का – मैं स्वयं से पूछता रहा था।

“लेकिन जाओगे कहां दोस्त?” प्रश्न सामने था। “तुम्हारा तो घर गांव या कोई भाई बंद है ही नहीं! पीओ और जीओ प्यारे!” मेरा ही हुक्म आया था मेरे लिए।

गुलनार को छोड़कर कहीं और चले जाने का मेरा बिलकुल मन नहीं था।

मेरे तो ख्वाबों और ख्यालों की मलिका गुलनार ही थी। सच पूछो तो मुझे गुलनार से आगे का और कुछ सूझता ही नहीं था। गुलनार को पाने के बाद तो मैं जैसे सारा जहान पा गया था। कितना मोहक था गुलनार के साथ जिया वो जमाना।

सब मटिया मैदान हो गया! लेकिन क्यों? हुआ कैसे ये सब?

आज फिर बड़ी शिद्दत के साथ गुलनार याद आ रही है। मन कह रहा है कि किसी बहाने वंशी बाबू से ही पूछ लूँ कि वो औरत जो बर्तन सफाई करती है वो कैसी है? लेकिन नहीं! वंशी बाबू को शक तो अवश्य हो जाएगा और अगर किसी तरह से भी उन्हें पता चल गया तो .. फिर तो ..

शंकर से पता लूंगा – मैं सोच लता हूँ। शंकर तो बता देगा कि वो बीमार औरत अब कैसी है? शंकर तो सब जानता है। वह सब के बारे जानता है। लेकिन .. लेकिन अगर शंकर को पता चल गया कि मैं और गुलनार ..

नहीं नहीं! मैंने किसी से भी कुछ नहीं पूछना। मैं तो वैरागी हूँ। मैं अब न पीतू हूँ न पव्वा हूँ। मैं तो ईश्वर का एक सच्चा प्रतिनिधि हूँ। ये संसार अब मेरा नहीं है। भगवत नाम ही मेरा है! लेकिन ..

“भटकना क्यों चाहते हो?” इस बार मेरी अंतर आत्मा बोली है। “तुम्हारी जीने की राह तो सीधी स्वर्ग जाती है! तुम तो माया मोह से मुक्त हो! औरों के लिए जीते हो और आनंद उठाते हो! सच तो यही है – स्वामी पीतांबर दास!”

“लेकिन मैं जानना चाहता हूँ कि गुलनार कैसे और कहां भटकी!” एक जिद्दी बालक की तरह मैं बोल पड़ा हूँ। “हमारा मरना जीना तो साथ था! फिर ये विछोह क्यों हुआ?”

“आकाश और धरती जहां मिलते हैं वहीं तुम फिर मिलोगे!” किसी ने कहा है।

कौन सी डगर है वह – मैं पूछता ही रह गया हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

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