विस्मय से भरी आंखों से स्वामी पीतांबर दास सामने से आते एक सन्यासी को देख रहे थे।
कोई ऋषि कुमार जैसा था। उसकी कंचन काया दमक रही थी। मस्त गजराज की चाल चल गत में अभिमान था। काले घुंघराले बाल और छोटी छोटी दाड़ी मूँछें बड़ी ही मोहक लग रही थीं। डूबते सूरज की ललौंही आभा ने गेरुआ वस्त्रों को सोना बना दिया था।
“बबलू ..?” अचानक ही उन्हें अपना बड़ा बेटा याद हो आया था।
अभिलाषाएं कभी मरती नहीं – स्वामी जी ने महसूसा था।
“भूल क्यों नहीं जाते उस स्वप्न को, पीतू?” आज उन्हीं का अंतर बोला था।
सन्यासी सामने आ कर खड़ा हो गया था।
“अरे, तुम! अविकार ..” स्वामी पीतांबर दास ने न जाने क्यों भक्तराज कह कर नहीं पुकारा था – अविकार को। “मैं तो सकते में आ गया था कि ..”
“वंशी बाबू माने ही नहीं!” अविकार बताने लगा था। “मुझे तो ये परिधान ..”
“क्यों क्यों? भाई मैंने नाम दिया है भक्तराज और वंशी बाबू ने परिधान दे दिया है ओर अब प्रकृति स्वयं तुम्हें संस्कार दे देगी!” अपना अनुभव कह सुनाया था स्वामी जी ने। “लेकिन तुम्हारी वो मित्र गाइनो .. शायद ..”
“अब गाइनो से कोई सरोकार नहीं रहा है स्वामी जी!” अविकार बताने लगा था।
“क्यों? वो तो ..”
“फ्रॉड है!” तनिक दबी जबान में कहा था अविकार ने। “गंगू ने मेरी आंखें खोल दी हैं स्वामी जी।”
“ये गंगू कौन?”
“ये भी पागल है। पागलखाने में पड़ा है। मेरी तरह इसे भी मूर्ख बनाया गया है। इसकी पत्नी और बड़े भाई ने मिल कर ..”
“लेकिन .. लेकिन पत्नी और भाई?”
“वही जायदाद और धन दौलत का लफड़ा होता है स्वामी जी!” अविकार का मन कसैला हो गया था। “कुत्तों की तरह लड़ते हैं मनुष्य।” वह कहने लगा था। “कोई किसी का नहीं होता स्वामी जी। सभी लालची हैं, स्वार्थी हैं। ये प्रेम प्रसंग तो फसाने का एक तरीका है।”
“तो क्या सन्यासी ही रहोगे ताउम्र?” स्वामी जी ने पूछा था।
“हां!” अविकार ने बेहिचक हामी भरी थी। “वहां लौटने का मन है ही नहीं स्वामी जी!” वह बताने लगा था। “गंगू खूब लड़ा लेकिन अंत में पागलखाना ही उसकी बांट में आ गया!” तनिक मुसकुराया था अविकार। “बेचारा गंगू!” उसने एक लंबी सी उच्छवास छोड़ी थी। “कहता था – हुस्न परी थी उसकी पत्नी शोभा! पागल हो गया था वो शोभा के लिए। लेकिन शोभा ने ..”
“घात कर गई होगी?” स्वामी जी पूछ बैठे थे।
“हां! बड़े भाई के साथ इश्क था। उसे तो उल्लू बनाया गया था।”
स्वामी पीतांबर दास का चेहरा बदल गया था। अचानक उन्हें भी याद हो आया था कि उनके परिवार ने भी उनका उल्लू ही बनाया था। जिनके लिए वो दिन रात खटते रहे थे उन्हीं ने तो ..
“संसार मिथ्या है फिर भी सब कुछ प्रवहमान है!” स्वामी जी एक बारगी सोचने लगे थे। “सब कुछ है संसार में!” उन्हें अब ज्ञात था। “लेकिन मिलता सब नसीब का है!” उनका अपना मत था। “मैं, अविकार ओर गंगू अनाथ हैं! लेकिन ..”
“मेरा मन लगने लगा है स्वामी जी!” अविकार ने चुप्पी तोड़ी थी। “अब मुझे अच्छा लगता है – जमीन पर सोना, पत्तल पर खाना और चंद्रप्रभा में नहाना!” वह हंसा था। “मैं अब महसूस करता हूँ स्वामी जी कि वो .. वो जो इंग्लैंड की मेरी दिनचर्या थी या कि मेरा रहन सहन था – सब बनावटी था। जैसे कि मैं बीमार था – मुझे अब लगता है। और जैसे किसी बीमार की तीमारदारी की जाती है – उसी तरह मेरी भी देखभाल होती थी। और चूंकि पापा ..” रुका था अविकार।
अविकार की आंखों के सामने अपने पिता अजय अवस्थी का समूचा साम्राज्य आकर ठहर गया था! सब संभव था उनके लिए! अपने बेटे के लिए वो हर असंभव को संभव कर जुटा देना चाहते थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा ..
“तुम सन्यासी बनोगे तुम्हारे पापा ने तो कभी सोचा ही नहीं होगा?” स्वामी जी पूछ रहे थे।
अविकार नाट गया था।
जीने की राह बिन मांगे सामने आती है, हमें तो सिर्फ उसपर चलना होता है।
मेजर कृपाल वर्मा

