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जीने की राह तिहत्तर

अमरपुर जाती बस यात्रियों से खचाखच भरी थी।

उद्योगपति अमरीश को बस के एक कोने में आधी सीट मुश्किल से मोहिया हुई थी। आज वो राजा नहीं रंक की भूमिका में थे। चुपचाप बस में बैठ वह आश्रम पहुंचना चाहते थे ताकि लोगों को खबर न लग जाए कि एक असफल हुआ विख्यात व्यक्ति किसी मामूली से स्वामी पीतांबर दास से आशीर्वाद लेने जा रहा था।

“स्वामी जी हैं तो चमत्कारी पुरुष!” एक यात्री ने बात छेड़ी थी। “कहीं इलाज नहीं हुआ था मेरी बेटी का तो मैं उसे यहीं लेकर आया था। आज घर परिवार की मालकिन है। मौज ले रही है!” अमरीश ने उस यात्री के खिले हुए चेहरे को पढ़ा था। शायद वो सच बोल रहा था। “मैं अब हर शनिवार को चोला चढ़ाने आता हूँ। कीर्तन में भाग लेता हूँ और ..”

“कहते हैं – स्वामी जी स्वयं प्रकट हुए थे?” दूसरे यात्री ने आम प्रश्न पूछा था।

“इसे जान कर क्या लाभ। लाभ उठाओ उनके आशीर्वाद का – जो मुफ्त मिलता है!” उत्तर आया था। “दिव्य पुरुष हैं – स्वामी जी! मैं तो न जाने कब से आ रहा हूँ ..”

स्वामी जी के बारे में एक स्वीकार था जिसे सुन कर अमरीश प्रसन्न हो गए थे।

अचानक अमरीश को जोर की खांसी उठी थी। कोई चुपके से बीड़ी पी रहा था शायद। जब खांसी रुकी ही नहीं थी तो साथ में बैठे यात्री ने उसे दो घूंट पानी पिलाया था। उसका दम लौट आया था। अचानक अमरीश को अपने परम मित्र अजय की याद हो आई थी। अजय ने हमेशा उनका साथ दिया था और ..

“अविकार का पता ठिकाना स्वामी जी को कैसे पता होगा?” अमरीश का सोच जागा था। “पुलिस ने दुनिया भर की खाक छान मारी है। गाइनो ने तो सारे संसार को सर पर उठा लिया है। लेकिन .. अविकार ..?”

अमरीश को अपने ऊपर क्रोध चढ़ आया था। क्यों .. क्यों अकेले में वो आ बैठा था इन अनपढ़ों के बीच और क्यों धरम की बात मान कर चले आए थे वो स्वामी पीतांबर दास के आश्रम? सरोज ने भी तो नहीं रोका! गुलाबों की फूल माला बना कर दे दी है और ..

बस रुकी थी। लोग नीचे उतर रहे थे। अमरीश भी नीचे उतर आए थे। एका एक उन्हें एक नई बयार ने छू दिया था। चिंता हरण सा कुछ हुआ था और वो प्रसन्न चित्त हो गए थे। आश्रम की भव्यता अलग से उन्हें पुकार बैठी थी।

अपार भीड़ थी। आशीर्वाद पाने वालों की लम्बी कतार थी। अमरीश चुपचाप लाइन में आ खड़े हुए थे। और जब उन्होंने स्वामी पीतांबर दास के दर्शन किए थे तो अफसोस और आश्चर्य दोनों ही दिमाग पर सवार हो गए थे। उन्हें तो किसी चमत्कारी पुरुष की जाज्वल्यमान पिंडी के दर्शन करने की अभिलाषा थी। लेकिन स्वामी जी तो अत्यंत ही साधारण से पुरुष थे और ..

“आगे बढ़ो न भाई!” पीछे वाले ने धक्का दिया था तो अमरीश का सोच टूटा था।

और जब उनका सामना स्वामी जी से हुआ था तो उनके हाथों में गुलाब की माला को स्वामी जी ने छू कर देखा था। वो मुसकुराए थे। अमरीश ने आशीर्वाद पा लिया था और आगे बढ़ गए थे।

मन हुआ था अमरीश का कि वो आश्रम को एक बार अंदर बाहर से देख ले।

चंद्रप्रभा के तटों पर उगा उपवन बड़ा ही मनोहारी था। स्वच्छ निर्मल जल की बहती धारा अमरीश को न जाने क्यों बुला बैठी थी। फिर तो उन्होंने डूब डूब कर स्नान किया था और फिर कीर्तन सुनने के लिए बैठे लोगों के मध्य आ बैठे थे।

स्वामी जी ने आकर आसन ग्रहण किया था और तभी कुमार गंधर्व ने अपना भक्ति गायन प्रारंभ कर दिया था।

“राधे ..!!!” कुमार गंधर्व ने स्वर साधा था। तानपूरे की झनकार ने सारे भक्तों को तरंगित कर दिया था। “राधे – तू न अइयो मेरे धाम!” कुमार गंधर्व ने गायकी आरंभ की थी।

न जाने अचानक ही क्या हो गया था – अमरीश को कि वो चौकन्ना हुए आती कुमार गंधर्व की आवाज को बड़े ध्यान से सुन रहे थे। कुमार गंधर्व की आवाज उनके अंतर में उतर गई थी। लगा था – वो तो इस आवाज को जानते हैं, पहचानते हैं और .. ये आवाज ..!

“तो क्या .. तो क्या स्वामी जी का आशीर्वाद फलित हुआ?” अमरीश ने स्वयं से प्रश्न पूछा था। “तो क्या – कुमार गंधर्व ही अविकार है?”

जीने की एक नई राह अचानक ही अमरीश की आंखों के सामने आ बिछी थी! आशाओं की अनगिनत किरणों ने उन्हें चहुं ओर से घेर लिया था।

मेजर कृपाल वर्मा

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