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जीने की राह सौ

“जमाना उलटे पैरों चलता है अमरीश जी!” श्री राम शास्त्री अपना अनुभव बताने लग रहे थे। “मेरा अकेला बेटा था। अंगूरी कहती – इसी को लंबी उम्र दे परमात्मा। पढ़ा लिखा लेते हैं। नौकरी से लगा देंगे। ब्याह कर देंगे और बस। बड़ा ही सीमित संसार बसाया था हमने। नौकरी थी – संस्कृत पढ़ाने का दायित्व था बस। बच्चों को शिक्षा देनी थी और तब लगा था कि मेरा बस इतना ही काम था।”

“श्रेष्ठ काम था।” अमरीश जी बीच में बोले थे। “शिक्षक हो तो ..”

“नहीं अमरीश जी! मैं अब न मानूंगा आप की बात! शिक्षक आज का मात्र एक नौकर है – शिक्षक नहीं है। हमें मूर्ख बनाया गया है। शाब्दिक ज्ञान देना कुछ देना नहीं है अमरीश जी! देना वो है ..”

“दिया क्यों नहीं?” अमरीश जी ने पूछ लिया था।

श्री राम शास्त्री चुप थे। क्या कहते? क्या बताते? कैसे बताते कि जिस रास्ते पर वो कोल्हू के बैल की तरह चलते चले गए उसी ने उन्हें मझधार में ले जाकर छोड़ा। वो तो आत्महत्या कर लेते लेकिन ..

“जिस दिन मुझे बेटे बहू ने घर से बाहर निकाला था – सच मानो अमरीश जी मैंने उस दिन प्राण त्यागने का निर्णय ले लिया था। दोष क्या था मेरा – बार-बार मैं स्वयं से पूछ रहा था। जिसके लिए उम्र भर खटा, जिन्हें सारी कमाई सौंप दी, जिन्हें मैं बुढ़ापे का सहारा मानता रहा उन्हीं ने ..”

“इसी का नाम तो संसार है, शास्त्री जी!” अमरीश जी तनिक हंसे थे। “मैं और आप एक बड़ा ही सुंदर स्वप्न लेकर जिंदगी से लड़े थे। लेकिन उस स्वप्न ने जब भयानक रूप धारण किया तो हम बाल-बाल बच गए!” अमरीश जी ने लंबी उच्छवास छोड़ी थी। “आप भी तो बच ही गए हो?”

“हां! अब तो लगा है कि बच गया हूँ। आप की कृपा है वरना वंशी बाबू तो कभी भी मुझे ..”

“उनका दोष नहीं है शास्त्री जी! हर आदमी की दृष्टि एक सा नहीं देखती है। आप जो देखते हैं – उसे मैं नहीं देख पाता!”

“नहीं अमरीश जी! मैं तो आपकी दृष्टि का कायल हूँ। जो आपने देखा वो तो मुझे दिखा ही नहीं था। शिक्षा का अर्थ ही आज मेरी समझ में आया है! संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना कर अर्थ भी अब समझा – मैं। सच मानिए – मैं तो अंधा था, मूर्ख था जो पढ़ाता था – उसे तो मैं स्वयं भी नहीं समझता था। क्लास रूम कल्चर जो हमें हमारे आका देकर गए हैं – नितांत गलत है!”

“अब तो मौका मिल रहा है – आपको!” मुसकुराए थे अमरीश जी। “अभी काफी उम्र शेष है – आपके पास शास्त्री जी! इस नए प्रयोग को पूरे मनोबल से संज्ञान में लाइएगा!”

“अब तो मैं आपको वचन भी दे सकता हूँ अमरीश जी कि अमरपुर आश्रम के झंडे को उठाकर मैं अब ..” शास्त्री जी ने आंखें उठा कर बहुत दूर देखा था।

“मैं भी वही सोच रहा था शास्त्री जी!” अमरीश जी खुश थे। “आप जैसा कोई एक और योग्य व्यक्ति मिल तो हम स्वास्थ्य सेवाएं भी आरंभ करेंगे!” अमरीश जी बता रहे थे। “देश में एक नया चलन आरंभ करेंगे!” हमें अपने पुराने ढर्रों को बदलना होगा! आज के हमारे असपताल ..” चुप हो गए थे अमरीश जी।

लेकिन श्री राम शास्त्री भी समझ गए थे कि वो कहना क्या चाहते थे। वो भी तो जानते थे कि हमारे समाज में हमारे हकीम और वैद्य किस तरह से लोगों को आरोग्य रहने में सहयोग करते थे। वो धन नहीं कमाते थे – यश की प्राप्ति करते थे और उनके लोग गुण गाते थे।

“नए रास्ते खोजने ही होंगे हमें शास्त्री जी!” अमरीश जी का स्वर गंभीर था। “और इस की शुरुवात के लिए अमरपुर आश्रम विल बी ए स्टार्ट पॉइंट!”

इन दोनों अनुभवी इंसानों ने आज जीने की नई राहें खोजने की प्रतिज्ञा की थी जिसकी आज के समाज को दरकार थी।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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