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जीने की राह पचास

भोर होते ही मुझे भोजपुर की वो भोर याद हो आती है जब हमारे परिवार के पराभव ने दस्तक दी थी।

दो चार सरकारी आदमी आए थे। बबलू से बहस कर रहे थे। उनका कहना था कि जो भी हमने घर मकान बनाए थे वो जमीन सरकारी थी, मंदिर की नहीं थी। बबलू जिद करता रहा था कि हमने मंदिर को पूछ कर ही अड्डा बनाया था और स्वामी श्री पाद जी ने हमें रहने को कहा था। गुलनार चुप थी। मैं भी चुप था। हमारे परिवार का मुखिया अब बबलू ही था। उसे ही हम सब चौधरी मान बैठे थे।

“नोटिस है भाई! एक सप्ताह में जमीन खाली कर दो। वरना तो ..” वो लोग नोटिस थमा कर चले गए थे।

यह पहली मुसीबत आई थी परिवार पर। मैं तो अनपढ़ था। गुलनार भी अनपढ़ थी। बबलू ही था जो कुछ पढ़-लिख गया था। उसने उस नोटिस को खूब पढ़ा था लेकिन उसकी भी समझ कुछ न आया था।

“किसी वकील को दिखाना होगा भइया!” साथ रहते गरीब दास की राय थी।

और वकील ने मोटी फीस लेकर यही बताया था कि वो जमीन सरकार की थी और किसी भी सूरत में खाली करनी पड़ेगी।

“अब क्या करें?” बबलू ने गुलनार से पूछा था।

गुलनार ने मेरी ओर देखा था। मैं क्या कहता? मैं चुप ही बना रहा था।

“अब हमें भोजपुर में रहना ही नहीं।” बबलू ने ऐलान किया था। “दुकान भी चल कर नहीं दे रही है। बिकता ही कुछ नहीं है। ये कालू जब से आया है व्यापार का भट्ठा बैठ गया है।” बबलू कालू को कोसता ही रहा था।

“चलते हैं कहीं और! फिर से दुकान लगाएंगे!” गुलनार चहकी थी। “कचौड़ियां फिर से ..” उसने मेरी ओर देखा था। मैं प्रसन्न हुआ था। शायद एक बार फिर मुझे कचौड़ियां बनाने का चांस मिलने वाला था। शायद एक बार फिर से किस्मत चमकेगी और इस बार हम ..

“नहीं! कोई अच्छा हलवाई रक्खेंगे इस बार! अच्छे पैसे लेगा तो काम भी अच्छा ही करेगा!” बबलू का तर्क था। “इस मनहूस को साथ नहीं लेना मां!” बबलू ने आहिस्ता से गुलनार को बताया था।

मैं कांप उठा था। मुझे बबलू से डर लगने लगा था। गुलनार किसी भी तरह बबलू से ऊपर नहीं जा सकती थी, मैं जानता था। अब मैं कहां जाऊंगा, मैं सोच में पड़ गया था। राम मिलन की दुकान तो अब बहुत दूर की बात थी, और अब तो मुझे कोई ..

पहली बार ही था, जब मेरा नशा काफूर हो गया था।

“कहां जाऊंगा? क्या करूंगा?” दो ही प्रश्न थे जो मेरे दिमाग में आवाजाही कर रहे थे। मैं मरणासन्न था। मेरा बदन निष्प्राण था। मेरी निस्तेज आंखें बुझ जाना चाहती थीं। मैं गुलनार से कहना चाहता था और मैं उसे पूछना चाहता था कि वो मुझे भूल क्यों गई और मेरा दोष क्या था?

जब तक मैंने कचौड़ियां बनाई थीं तब तक ग्राहकों की लाइन टूटी नहीं थी। लेकिन जब से कालू आया था – सत्यानाश होता ही चला गया था। मेरा दोष क्या था?

कमाल यही होता है कि कभी कभी आदमी की समझ यही नहीं पड़ता कि उसे बीना कोई अपराध किए ही सजा क्यों मिल रही है?

सारी राहें और रास्ते भूल वह पीतू उर्फ पव्वे की तरह सजा लेने के लिए बस तैयार हो जाता है।

विचित्र है – ये जिन्दगी!

मेजर कृपाल वर्मा

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