“मैं तो हैरान हूँ जी!” सेठानी सरोज चंद्रप्रभा के किनारे अमरीश जी के साथ बैठी बतिया रही थी। इतवार था। दोनों साथ-साथ सैर-सपाटे कर रहे थे। खैर कुशल के बाद वो एक दूसरे के मन की बात भी सुनते थे।
“ऐसी-ऐसी दर्द भरी कहानियां हैं इन श्रद्धालुओं की – सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं! कितना निर्दयी और निर्लज्ज है हमारा समाज – मैं तो हैरान हूँ।”
“क्यों!” तनिक मुसकुरा कर अमरीश जी ने प्रश्न किया था। “अगर हमें अविकार न मिल गया होता तो हमारा क्या हाल होता – भूल गईं?” उन्होंने सरोज की आंखों को पढ़ा था। “सब जाता! कंपनी जाती, घर-घूरा बिक जाता, जेल भी जाना होता और फिर तो ..!” तनिक ठहरे थे अमरीश जी। “सोचो सरोज अंजली का क्या होता?”
दोनों चुप थे। अपने-अपने विचारों में विचरते रहे थे – बहुत देर तक!
“नारी निकेतन में परित्यक्ताएं हैं, बूढ़ी दादियां हैं, कलंकित हुई बहन बेटियां है और ऐसी-ऐसी औरतें हैं – जिनके बेटों ने उन्हें घर से निकाल दिया है। कोई मैंने कभी इन महिलाओं से मिलने आते नहीं देखा।” कहते-कहते सरोज की आंखें भर आई थीं। “मेरी तो रूह कांप जाती है जब कभी सोचती हूँ कि ..”
“परमेश्वर का रचा बसा संसार है सरोज!” अमरीश जी गुरु गंभीर स्वर में बोले थे। “अगर परमेश्वर की कृपा न होती और मुझे मौजी यहां आने के लिए जोर देकर न कहता तो मैं भला आश्रम आता? और आश्चर्य ये देखो कि अविकार भी यहीं आ कर मिला!” तनिक हंस गए थे अमरीश।
“सच बात है! हम तो न जाने कहां-कहां भटक रहे थे। मैं तो बिलकुल निराश थी।”
“मुझे भी कौन सी आस थी!” अमरीश जी बोले थे। “अजय के जाने के बाद तो ..”
“काश! आज अजय भाई और मेरी मानसी हमारे साथ होते!” सरोज टीस आई थी। “लेकिन देखो – उनका अंत।” रोने लगी थी सरोज।
अमरीश ने सरोज के हाथों को अपने हाथों में भर कर सांत्वना दी थी।
“खुश नहीं हो?” अमरीश ने एक अप्रत्याशित प्रश्न पूछ लिया था।
“बहुत खुश हूँ। सच कहती हूँ – मेरा ये सौभाग्य रहा कि मैं आश्रम आ गई! सेवा करने का एक नया मौका दिया है – परमेश्वर ने। इन लोगों के साथ इनके सुख दुख बांटने में खूब आनंद आता है। सभी मुझसे अपनी कहते हैं। सभी मेरी राय लेते हैं। सभी मेरी बात मानते हैं। ये मुझे बहुत अच्छा लगता है। लगता है – नई जिंदगी मिली है मुझे और एक नया जीने का रास्ता खुला है – जो सच है, सही है!”
सरोज ने पलट कर अमरीश को देखा था। वहां भी एक स्वीकार था। एक सहमति थी। वो भी अपने भावावेश को संभाल नहीं पा रहे थे!
“मैं भी एक नया-नया आयाम पा गया हूँ, सरोज!” अमरीश जी बोले थे। “संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना का विचार श्री राम शास्त्री चले आए तो मैंने लपक लिया। वंशी बाबू तो नाराज थे। लेकिन सरोज मुझे एक नया रास्ता दिखा था। मुझे दिखा था कि आश्रम में पैसा पड़ा है। पैसा खड़ा है और अगर ये पैसा ठीक ठिकाने न लगा तो भ्रष्टाचार होगा! लेकिन अब तो ..”
“अब तो ..?”
“अस्पताल भी खोलेंगे सरोज! अमरपुर आश्रम के ही नाम से देश में मुफ्त सेवा देने के लिए संस्थाएं खोलते चले जाएंगे!” प्रसन्न थे अमरीश जी।
“मैं और क्या-क्या करूं नारी निकेतन में?” सरोज का प्रश्न था।
“नई परंपराएं डालो! नए-नए उत्सव मनाओ। नई दिशा दो नारियों को। आत्म निर्भर बनाने के अनुष्ठान चलाओ।” अमरीश जी बताते रहे थे।
अमरीश जी और सरोज दोनों महा प्रसन्न थे।
उन दोनों ने ही जीने के लिए नई प्रेरणा ग्रहण की थी और उनके लिए नई जीने की राहें खुल गई थीं।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

