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जीने की राह नवासी

एक अमंगल की तरह श्री राम शास्त्री अनायास ही स्वामी जी के सामने आ खड़े हुए थे।

श्री राम शास्त्री ने स्वामी जी के चरण न लेकर एक चलता सा प्रणाम किया था। स्वामी जी ने भी देख लिया था कि श्री राम शास्त्री अभी भी अपनी आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के घेरे में बंधे हुए थे। माया मोह का जादू वो झेल नहीं पा रहे थे। वो आज भी किसी मंतव्य को लेकर आकुल व्याकुल थे।

“कैसे लौटे?” स्वामी जी ने संक्षेप में पूछा था।

श्री राम शास्त्री चुप थे। उनकी दृष्टि स्वामी जी को निरख परख रही थी। वही दो मोढे पड़े थे। कुटिया को नई फूंस से छा दिया गया था। शेष वही चार लंगोट झाड़ियों पर पड़े सूख रहे थे। लेकिन अमर पुर आश्रम का वैभव, ख्याति और सम्मान सफलता की सीढ़ियां चढ़ता ही चला जा रहा था।

“म म मैं स्वामी जी श्री राम संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना करना चाहता हूँ।” श्री राम शास्त्री सीधे मुद्दे पर आ गए थे।

“सुंदर विचार है। अवश्य कीजिए!” स्वामी जी ने विहंस कर कहा था।

“ये मेरा संकल्प है स्वामी जी। लेकिन मेरे पास इतना धन नहीं है कि मैं ..”

“धन के बिना तो हो न पाएगा!”

“हां! लेकिन अगर आपकी कृपा हो जाए तो ..?”

“क्यों नहीं! वंशी बाबू से बात कीजिए वो आप को अवश्य ही ..”

“वो तो बात भी नहीं करते!” शिकायत की थी श्री राम शास्त्री ने।

“बुलवा लेते हैं!” स्वामी जी ने शंकर की ओर देखा था। “जाओ! कहो वंशी बाबू को कि आएंगे!” स्वामी जी का आदेश था।

शंकर कई पलों तक खड़ा रहा था। वह श्री राम शास्त्री को घूर रहा था। वह मान रहा था कि ये ठग जरूर स्वामी जी को ठग कर मानेगा!

वंशी बाबू आए थे तो श्री राम शास्त्री मोढे से उठ कर खड़े हो गए थे।

“वंशी बाबू! शास्त्री जी का संकल्प है कि ..” स्वामी जी ने सीधे बात आरंभ की थी।

“मुझे पता है स्वामी जी! मैंने कह दिया है कि संस्था का नाम अमरपुर आश्रम संस्कृत महाविद्यालय होगा। ये प्रिंसिपल के पद पर रहेंगे और अगर ..”

“फिर मेरा क्या रहेगा स्वामी जी?” श्री राम शास्त्री रो पड़ना चाहते थे।

“तुम्हारा है क्या?” वंशी बाबू बिगड़ गए थे। “तुम तो ठगी करने आए हो! तुम्हें तो आश्रम का पैसा दिखाई दे रहा है। तुम तो ..”

“शांत हो जाइए वंशी बाबू!” स्वामी जी ने मुसकुराते हुए कहा था।

वंशी बाबू ही नहीं आश्रम का हर कोई जान गया था कि श्री राम शास्त्री कोरा ठग था। वह लालची था, स्वार्थी था, सेल्फ सेंटर्ड था और उसे अपने लोभ लालच के आगे और कोई रास्ता दिखाई ही न देता था।

“संस्कृत के विद्वान हैं शास्त्री जी!” स्वामी जी ने वंशी बाबू को याद दिलाया था।

“ये निरा ठूंठ है स्वामी जी। ये पढ़ा लिखा मूर्ख है।” वंशी बाबू शांत नहीं हुए थे। “इसे अपने मतलब के आगे और कुछ नहीं दिखता। अंधा है!”

बात बिगड़ गई थी। श्री राम शास्त्री उदास निराश हो कर लौट रहे थे।

श्री राम शास्त्री की आत्मा ने फिर आज एक बार संघर्ष किया था कि वो मुक्त हो जाए, सब कुछ त्याग दे, छोड़ दे संसार के माया मोह को – लेकिन श्री राम शास्त्री की मुट्ठियां कस गई थीं। वो अपना संकल्प ले कर लौट रहे थे।

लेकिन जाना कहां था – वो समझ ही न पा रहे थे। व्यामोह ने अंधा कर दिया था उन्हें और वो भूल ही गए थे – जीने की राह!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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