श्री राम शास्त्री भी लौट आए थे। एक बेजोड़ सफलता कांख में दबाए वो अमरपुर आश्रम के आभारी थे। नई जीने की राह जो उन्होंने गही थी – उसने उन्हें स्वर्ग दिखा दिया था।
“सच कहता हूँ अमरीश जी आश्रम में आने के बाद ही मेरी आंखें खुलीं। नौकरी ने तो मुझे निकृष्ट और तुच्चा बना दिया था। रिटायर होकर अकेले बेटे के साथ आजीवन सुख भोग का सपना जब लाचार कर लौट गया तब मेरी नींद खुली। अब आकर जीना सीखा।” श्री राम शास्त्री मुसकुरा रहे थे।
“देर आए दुरुस्त आए!” अमरीश जी भी हंसे थे। “अब आपकी तरह मैंने भी नई मंजिल खोज ली है। स्वास्थ्य मेरा गढ़ रहेगा तो शिक्षा आपकी रही। इन दोनों विधाओं को अमरपुर आश्रम का अभियान बना कर नए प्रारूप में आरंभ करेंगे, शास्त्री जी!” अमरीश जी का सुझाव आया था।
“यही आज की आवश्यकता है पापा!” अविकार ने अपना मत व्यक्त किया था। “नई रोशनी मिलेगी तभी देश और समाज आगे आएगा।”
अमरीश जी और शास्त्री जी ने एक साथ अविकार को देखा था। जैसे नई पीढ़ी मांग कर रही थी – नए नए प्रयोगों की, ऐसा लगा था।
“कठिनाइयां बहुत हैं बेटे!” श्री राम शास्त्री ने अविकार को स्नेह पूर्वक बेटा कहा था। “संस्कृत महा विद्यालय में स्नातकों का एडमीशन कराने के लिए मुझे दर दर भटकना पड़ रहा है पुत्र! कहते हैं – क्या होगा संस्कृत पढ़ कर। नौकरी तो अंग्रेजी पढ़े लिखों को ही मिलती है।” श्री राम शास्त्री ने मुड़ कर अमरीश जी को देखा था।
“ये तो सर्व विदित है शास्त्री जी। लोग अपनी गाढ़ी कमाई कॉनवेंट स्कूलों को दे रहे हैं ताकि उनके बच्चे अंग्रेजी पढ़ जाएं। इस अंग्रेजी ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया।” भभकने लगे थे अमरीश जी। “अभी देश आजाद नहीं हुआ शास्त्री जी।” कहने लगे थे अमरीश जी। “आप की तरह मुझे भी ऐलोपैथी के मुकाबले में आना पड़ेगा। आयुर्वेद के पास सब कुछ है – लेकिन है कुछ भी नहीं। लोग मानते ही नहीं कि आयुर्वेद एक संपूर्ण ज्ञान है, एक पद्धति है और अंग्रेजी दवाएं, अंग्रेजी डॉक्टर और अंग्रेजी अस्पताल – जहां उन्हें लूट लिया जाता है, आज भी देश काल की जरूरत बने हुए हैं। लेकिन मैंने भी प्रण ले लिया है आप की ही तरह शास्त्री जी कि तन मन धन से मुझे समाज सेवा में लग जाना है! अमरपुर आश्रम के औषधालयों को इतना श्रेष्ठ बनाना है कि लोग स्वयं चले आएं। सब कुछ मुफ्त होगा। दवा के पैसे लेना तो वैसे भी पाप है।”
“एक से दो तो हो गया – अब दो से चार होने में भी देर न लगेगी।” सरोज सेठानी ने हंस कर कहा था। “अब समाज में इच्छित क्रांति आएगी। अब उठेगा देश!” वह कहती रही थीं।
अमरपुर आश्रम की ख्याति बढ़ गई थी। श्रद्धालुओं की भीड़ भी बहुत बढ़ गई थी। लोग दूर दूर से आश्रम पहुंचते थे। स्वामी जी के आशीर्वाद की चर्चा थी। स्वामी जी को लोगों ने प्रकृति पुत्र मान लिया था। गैरिक अल्फी में एक जागृत दिव्यता की तरह चलते फिरते स्वामी जी को लोग अचरज की आंखों से देखते रहते थे।
शनिवार था। आज की रौनक देखने लायक थी। श्री राम शास्त्री भी बेहद प्रसन्न थे। शनिवार का भक्ति सम्मेलन अपने आप में एक प्रसंग बन गया था। ये सिद्ध हो गया था कि कर्म योग और ज्ञान योग बड़ा भक्ति योग था। भक्ति भावना ही सबसे श्रेष्ठ भावना थी। मन को सबसे ज्यादा प्रिय भक्ति गान ही था।
“आज क्या सुनाओगे अविकार?” शास्त्री जी पूछ रहे थे। “लग रहा है मैं बहुत दिनों से प्यासा हूँ और अब भक्ति की प्यास बुझाने लौटा हूँ।”
“फिर तो आप को तृप्त करके रहेंगे अंकल।” अंजली ने विहंस कर कहा था।
शाम थी। भक्ति संगीत आरंभ होने को था। स्वामी जी आसन पर विराजमान थे। दूसरे आसन पर श्रावणी मां विराजमान थीं। स्वामी जी गेरुआ वस्त्रों में थे तो श्रावणी मां श्वेत श्रृंंगार में सजी थीं। दोनों की छटा अलग अलग थी लेकिन थी अद्वितीय।
“प्रभु जी मोरे अवगुन चित न धरो।” अंजली ने जब तान भरी थी तो अमृत बरसने लगा था।
“मैं अज्ञानी .. तुम अविनाशी .. प्रभु जी मोरे ..!” अविकार ने सुर उठाया था।
श्रद्धालु अभिभूति थे। भक्ति सर में सभी आकंठ डूबे थे।
भक्ति मार्ग ही आज सब को जीने की श्रेष्ठ राह लगा था।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

