“नहीं, नहीं, नहीं!” वंशी बाबू पागलों की तरह चीख रहे थे। “इस बार मैं मैदान छोड़कर नहीं भागूंगा!” वो शपथ ले रहे थे। “भाग जाएं सब! भाग जाए शास्त्री! वंशी नहीं भागेगा!” उनका एलान था। “मैं अमरपुर आश्रम की आन, बान और शान को मिटने न दूंगा!” प्रत्यक्ष में कहा था वंशी बाबू ने। “गुलाबी और नो गुलाबी! षड्यंत्र है ये सब! मैं इस गुलाबी को और अन्य गुलाबियों को ..” दांती भिच आई थी वंशी बाबू की।
विगत परत दर परत खुलने लगा था। अपने ही घर में कोहराम मचाती छोटे भाई की विधवा लाजो ने आज फिर से उन की आंखें खोल दी थीं। अपने भरे पूरे घर संसार को उन्होंने खड़े होकर स्वाहा होते देखा था। वो बड़े थे तो बोले नहीं थे। लेकिन आज – अब वो इस आश्रम के कर्णधार थे! वो मिट जाएं भले ही लेकिन आश्रम न मिटेगा – उनका अटल निर्णय था।
“चोट खाई नागिन है गुलाबी!” वंशी बाबू स्वयं को समझा रहे थे। “इसे .. इसे ..” वो गहरे सोच में डूब गए थे।
“हार कहां है मंजू?” गुलाबी का स्वर चटका था।
“वंशी बाबू ले गए!” मंजू ने उत्तर दिया था।
“क्या ..?” गुलाबी उछल पड़ी थी। “क्यों .. क्यों दिया तुमने वंशी बाबू को हार?”
“..” मंजू कुछ बोल न पाई थी। वंशी बाबू ने मौका ही न दिया था कि मंजू ना कर पाती।
“इस कांटे को पहले निकालते हैं मंजू!” गुलाबी ने दूसरी शपथ ली थी। “ये सांप है! इसका फन कुचलना ..”
स्वामी जी अपने आप को बेखबर बनाने के प्रयत्न में लगे थे।
“ये क्या हो रहा है पीपल दास जी?” स्वामी जी ने आंख उठा कर पीपल दास को निहारा था।
लेकिन पीपल दास जी भी मौन थे। उनकी आंखें तो थी नहीं – जो देखने पर विवश होते! आश्रम में उठा शोर शराबा वो अपने मौन के पीछे छुपे महसूस कर रहे थे। उन्हें चोर और शाह की खबर तो थी पर बताना नहीं चाहते थे।
हीरों का हार हाथ से निकल जाने पर गुलाबी ने अपनी भडास गुलनार पर निकाली थी।
“कल बारह बजे इस चोर का सर मुड़ा कर सरे आम आश्रम से निकाल देंगे, मंजू!” गुलाबी ने ऊंचे स्वर में ऐलान किया था। “बुलाकी नाई को बता दो। कल ठीक बारह बजे इसे गंजा करेगा और ..”
अच्छा नहीं लगा था ये ऐलान – आश्रम वासियों को!
लेकिन आश्चर्य की बात ये थी कि गुलाबी का रौब रुतबा आश्रम पर हावी हो चुका था। उसके मठाधीश बनने की संभावना अब सच में बदलती लग रही थी। गुलाबी की चमचागीरी में लोग धीरे-धीरे जुटने लगे थे।
“मैं चोर नहीं हूँ स्वामी!” स्वामी पीतांबर दास के एकांत को भेद गुलनार की आवाजें आने लगी थीं। “मैं .. मैं बेगुनाह हूँ। मेरा कोई कसूर नहीं है। गुलाबी को मुझसे बैर है कि मैं श्रावणी मां क्यों बनी!”
“क्यों बनी थीं तुम श्रावणी मां?” स्वामी जी को क्रोध चढ़ आया था।
“सेठानी सरोज ने जिद की थी। मैंने तो ..”
“तो अब भुगतो!” रूठ गए थे स्वामी जी। “हार तो बरामद हुआ है?”
“पीतू …! मैं तुम्हारी पत्नी हूँ – गुलनार हूँ ..”
“थीं! अब नहीं!” साफ नाट गए थे स्वामी जी।
हारा-हारा, थका-थका एक भाव स्वामी पीतांबर दास के अंतर में भरता रहा था। वह अब पीतू नहीं थे। वो अमरपुर आश्रम के स्वामी पीतांबर दास थे! वो श्रेष्ठ थे। वो पूज्य थे! वह कैसे कहते कि ..
जीने की राह भूल गए थे स्वामी जी पीतांबर दास!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

