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जीने की राह एक सौ एक

“सेठ हैं तो अपने घर रहें! यहां आश्रम में क्या लेने आए हैं?” गुलाबी ने अपना मुंह सा खोल दिया था। उसे सेठानी सरोज फूटी आंख भी नहीं सुहाती थी। गुलाबी का अदल सरोज के आने से जाता रहा था। “बनिए हैं!” गुलाबी गरजी थी। “लोग लुगाई दोनों हैं! खरीद लेंगे आश्रम को।” गुलाबी ने काँटे की बात की थी। “दोस्त को मार कर सारा माल समेट लिया। लड़की को लड़के के साथ चपेक दिया। अब आश्रम ..” गुलाबी ने अपने इर्द गिर्द जमा अपनी सहेलियों को घूरा था।

“बड़ी चालाक है ये सेठानी।” मंगली ने गुलाबी का समर्थन किया था। “सब कुछ अपने हाथ में ले लिया है। जैसे यही मालिक हो आश्रम की ..”

“दुधारू गाय है आश्रम दीदी!” रौनक ने भी समर्थन किया था। “इतना चढ़ावा आता है – कभी सोचा भी है! इनकी आंख है। कभी भी ..”

“और एक वो भी तो आ गया है – शास्त्री!” सुरजीत ने सुझाया था। “इन्हीं का आदमी है। सब मिल कर आश्रम का माल खींचेंगे। देख लेना ..”

“बेचारे स्वामी जी सीधे आदमी हैं। बैरागी हैं। संत हैं। लेकिन ये लोग ..? वंशी बाबू को तो बहका लिया है। वो भी अब इन्हीं के कूंड़ में चलते हैं।” मंजू ने अंतिम राय सामने रक्खी थी।

गुलाबी की आंखें चिरौटे जैसी चमकने लगी थीं।

“दीदी!” सुषमा बोली थी। “वंशी बाबू तो आपकी बहुत इज्जत करते हैं। आप की बात भी मानते हैं। उन्हीं को बुला कर बताते हैं कि आश्रम हाथ से निकल जाएगा अगर ..”

सुषमा का सुझाव सभी को सही लगा था।

वंशी बाबू बहुत व्यस्त चल रहे थे। श्रावणी का त्योहार सर पर था और सरोज सेठानी इस बार बड़े धूम धाम से मनाना चाहती थीं – श्रावणी। उनका सुझाव था कि नारी की दुर्दशा को सुधारने के लिए नारी को ही सशक्त बनाया जाए। नारी को नारी में निहित सामर्थ्य का बोध कराया जाए!

साप्ताहिक गोष्ठियां होने लगी थीं। नारी निकेतन में एक नया रिवाज चल पड़ा था। इन गोष्ठियों में नारियां अपने-अपने अनुभव बताती थीं। उन अनुभवों को आधार मान कर अच्छे बुरे पर चर्चा होती थी। पाया यही जाता था कि छोटी मोटी बुनियाद पर ही झगड़े हो जाते थे और उनके परिणाम भयंकर निकलते थे।

“पुरुष से बड़ी नारी है!” सेठानी सरोज हर बार इसी बात पर जोर देती थीं। “पुरुष तो बाहर का सूरमा है। जबकि नारी घर की शोभा है। घर को नारी ही स्वर्ग बना सकती है।” उनका कहना था।

“तुमने कितने स्वर्ग बसाए हैं सेठानी?” गुलाबी ने एक सभा में खड़े होकर पूछा था।

सरोज को अचानक ही एक जोर का झटका लगा था।

गुलाबी का चेहरा ईर्ष्या और जलन से धधक रहा था। उसे यों सीख देती सरोज अपनी दुश्मन लगी थी। नारी निकेतन का चलता ढर्रा बदल दिया था सरोज ने। गुलाबी की चौधर जाती रही थी।

“मैं अपनी बात तो कर ही नहीं रही गुलाबी!” सरोज ने संयत स्वर में कहा था। “हम तो सभी की समस्याओं के बारे बतिया रहे हैं!”

“इन सब की ठेकेदार आप कब से बनीं?” मंजू ने पूछा था।

सरोज को समझ आ गया था कि गुलाबी का ये कोई नया प्रपंच था।

यों अपना घर बार छोड़ कर आश्रम में आना आज सरोज को बुरा लगा था। जिस समाज की आप सेवा करना चाहते थे – उसे सेवा की दरकार ही कहां थी। जिस नारी का उत्थान करने का बीड़ा उन्होंने उठाया था – उस नारी को तो किसी उत्थान पतन से सरोकार ही नहीं था। वो तो अपने इसी हाल बेहाल में खुश थी।

“मैं चलती हूँ!” कह कर सरोज सभा छोड़ कर चली आई थी।

बात वंशी बाबू तक पहुंच गई थी।

“मैं घर बार छोड़ कर क्यों भागा था?” वंशी बाबू ने स्वयं से प्रश्न पूछा था और वो खूब ही हंसे थे। अपने घर में मचे कलह से हाथ छुड़ा कर वो बैरागी बन गए थे। और अब उनके बैरागी स्वरूप के सामने वही कलह फिर आ खड़ा हुआ था। “है कोई रास्ता?” वो स्वयं से प्रश्न पूछ रहे थे।

वंशी बाबू का दिमाग आज वर्षों के बाद फिर से जीने की कोई नई राह खोजने लगा था।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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