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जीने की राह एक सौ दो

“निकाल बाहर करो इसे आश्रम से!” श्री राम शास्त्री ने स्पष्ट कहा था। उन्हें अचानक ही अपने बेटे की बहू याद हो आई थी। उनका क्रोध उबाल पर था। “इस तरह की औरतें कलंकित करती हैं समाज को!” उनका कहना था।

“लेकिन जाएगी कहां?” सेठानी सरोज का प्रश्न था। “पीछे तो कोई है नहीं। अच्छे संभ्रांत परिवार को उजाड़ कर आई है।” वो बताने लगी थीं। “पति को पटा कर सास को पिटवा दिया। फिर क्या था। सब चौपट हो गया। पति भी घर छोड़ कर भाग गया।” वो बताती रही थीं। “यही तो मैं बताती हूँ इन्हें कि औरत आग लगाती है तो ..”

“आश्रम टूट जाएगा!” वंशी बाबू गंभीर थे। “अभी तक का किया कराया सब चौपट हो जाएगा!” उनका कहना था। “ये औरत बाहर निकली तो ..”

अमरीश जी अभी तक मौन थे। अपने अनुभव से वो नारी को गलत नहीं मानते थे। उन्होंने गाइनो ग्रीन का बेजोड़ नाटक नंगी आंखों देखा था। अगर परमेश्वर की नजर न होती तो बर्बाद होने में देर क्या थी? गुलाबी को प्रवोक करना गलत होगा – वो तो जानते थे। कोई ऐसा उपाय सामने आए – जो न सांप मरे और न लाठी टूटे। वो चाहते थे कि सरोज गुलाबी के सामने समर्पण कर दे।

“घर लौट चलते हैं सरोज!” अमरीश जी ने सुझाव सामने रक्खा था। “यहां हम जो भी करेंगे – लोग शक जरूर करेंगे। आश्रम में आता धन माल तो सभी को दिखाई देता है। हर आदमी अपना-अपना कयास लगाता है। और हम कोई ..”

“कल ही लौटते हैं!” सरोज ने भी मान लिया था।

आश्रम में खबर उड़ गई थी। अमरीश जी और सेठानी जी अपने घर लौट रहे थे। गुलाबी की कमर ठोकती मंजू बेहद खुश थी। गुलाबी का तीर ठिकाने लगा था। उसे लगा था कि आश्रम अब उसकी गाही में समा गया था। घर उजाड़ दिया – पर आश्रम को वह किसी कीमत पर भी उजाड़ना न चाहती थी। कोई और ठिकाना था नहीं – जहां वो चली जाती! सेठ लोगों का तो साम्राज्य था। ठीक जा रहे थे – अपने घर।

जब खबर स्वामी जी के पास पहुंची थी तो वह विचलित हो गए थे।

“अच्छा नहीं होगा, स्वामी जी अगर अमरीश जी और सेठानी जी लौट गए तो!” शंकर बताने लग रहा था। “बहुत भले लोग हैं। क्या होगा कोई साधू भी उनके मुकाबले! और ये गुलाबी ..” शंकर ने स्वामी जी के गंभीर चेहरे को पढ़ा था। “मक्कार है!” शंकर कह गया था। “सौ चूहे खा कर हज पर आई है।” शंकर हंसा था। “उजाड़ देगी आश्रम को ये!” शंकर बेधड़क कह गया था।

स्वामी जी ने दूर देखा था। उन्हें अचानक ही गुलाबी और गुलनार साथ-साथ खड़ी नजर आई थीं। कैसे गुलनार ने अपना बसा बसाया गृहस्थ बर्बाद किया था – वो तो जानते थे। बेटों के साथ मिल कर अपने पति को नदी में फेंकना – उस पति को जो ..

“क्या अब गुलाबी उजाड़ेगी आश्रम को ..?” अचानक ही एक प्रश्न स्वामी जी के सामने आ खड़ा हुआ था।

“मैं भी चला जाऊंगा स्वामी जी!” वंशी बाबू कह कर लौट गए थे। “इन औरतों की पंचायत में मैं पहले ही हाथ जला चुका हूँ!” उनका कहना था।

औरत .. और औरतें .. और उनकी पंचायतें – एक आंधी की तरह सामने के खुले क्षितिज पर छा गई थीं। स्वामी जी अपने सहज ज्ञान से जानते थे कि अगर इस घटाटोप को छू दिया तो ये बरसेगा। खूब बरसेगा और आश्रम को बहा ले जाएगा!

आश्रम के भक्तों की आंखें अब स्वामी पीतांबर दास पर आ टिकी थीं।

स्वामी जी मौन थे। स्वामी जी किसी सोच-विमोच में डूबे थे। स्वामी जी सारी कलह का उत्तर खोज लेना चाहते थे। रह-रह कर स्वामी जी को गुलनार ही याद आ रही थी। गुलनार लौट क्यों गई थी? गुलाबी लौट क्यों नहीं जाती?

“गुलाबी के साथ संवाद ..?” अचानक स्वामी जी की समझ ने सुझाया था। “व्यर्थ होगा!” उत्तर भी साथ-साथ चला आया था।

अब तो आश्रम की जान पर बन आई थी। सब सुचारु रूप से चल रहा था और अचानक ही ठोकर खा कर जीने की राह भूल गया था – अमरपुर आश्रम!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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