अंजली का कीमती हीरों का हार चोरी हो गया था।
आग की लपटों की तरह खबर पूरे आश्रम में फैल गई थी। कयास लगाए जा रहे थे कि चोरी की किसने होगी। चोरी की पहली घटना थी आश्रम में। वहां सभी भूखे नंगे थे तो किसी का क्या चुराता? लेकिन अंजली तो आगंतुक थी और उत्सव में सजधज कर करवा चौथ का व्रत मनाने आई थी।
“झूठ बोलती है सेठानी सरोज!” गुलाबी का कहना था। “आश्रम को बदनाम करना चाहती है यह। खुद खरीदना चाहती है। आश्रम अनाथों के लिए है। दीन दुखियों के लिए है। फिर ये सेठ लोग यहां क्या कर रहे हैं?”
मंजू ने अपनी सहेलियों के साथ मिल कर सेठानी सरोज के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। तरह तरह के इल्जाम सेठ परिवार पर लगाए जा रहे थे। कहा जा रहा था कि अमरीश जी और श्री राम शास्त्री मिल कर आश्रम का धन माल लूट रहे थे।
“ये लोग हैं कौन जो यहां पड़े हैं?” मंजू जहर उगल रही थी। “धनी मानी लोगों के लिए थोड़े ही है ये आश्रम? इनके तो घर बार हैं और धंधे व्यापार हैं। फिर ये यहां क्या लेने आए हैं?”
“आश्रम के माल पर आंख है। बेचारे स्वामी जी तो गऊ आदमी हैं। और ये लोग हैं – शातिर! माल खींचने लग रहे हैं।”
वंशी बाबू बड़ी मुश्किल में फंस गए थे।
“पुलिस बुला लो वंशी बाबू!” श्री राम शास्त्री ने सुझाव दिया था। “चोर पकड़ा जाएगा – मैं गारंटी देता हूँ।”
“आप मामले को समझ नहीं रहे हैं शास्त्री जी!” टीस कर कहा था वंशी बाबू ने। “इनका निशाना कहीं और है। लेकिन .. अंजली का हार ..?”
सेठानी सरोज, अमरीश जी और अविकार-अंजली सकते में आ गए थे। हार चोरी होने के साथ-साथ उनपर कीचड़ भी उछाला जा रहा था। गुलाबी की जबान तो सरग-पताल बक रही थी। इस हालत में आश्रम में रहना उन्हें असंभव लग रहा था।
“छोड़िए ये सब – वानप्रस्थ वगैरह पापा!” अविकार नाराज था। “हमारे साथ चलिए आप, हम दोनों भी तो अकेले हैं?”
“हां पापा!” अंजली ने भी सुर में सुर भरा था। “चलो, मम्मी! उठाओ अपनी भाजर! मेरा भी मन लग जाएगा!”
पल छिन में आश्रम में खबर दौड़ गई थी कि सेठ परिवार अंततः आश्रम छोड़ कर जा रहा था।
“हो गया न रास्ता साफ?” मंजू ने गुलाबी को आंख मारी थी।
खबर सुन कर स्वामी जी दौड़े चले आए थे।
“ये क्या कर रहे हैं आप लोग?” स्वामी जी तड़के थे। “किसने कहा है आप ..”
“आश्रम इनके लिए थोड़े ही है!” मंजू बोल पड़ी थी। “जाएं अपने अपने घर! ये कोई अनाथ हैं क्या?”
विचित्र विदाई थी – अमरीश जी और उनके परिवार की। स्वामी जी की समझ कुछ भी नहीं आया था। वंशी बाबू भी मूक दर्शक बने रहे थे। श्री राम शास्त्री को लगा था कि अब उनका जाना भी अनिवार्य था।
एक बारगी सभी के जीने की राहें बिखर कर रह गई थी।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

