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जीने की राह एक सौ बारह

“एक नजर के बाद फिर क्यों नहीं दिखे स्वामी जी?” गुलनार का मन बार बार इसी एक प्रश्न को पूछे जा रहा था। “आए क्यों नहीं? लौटे क्यों नहीं?” वह कारण जान लेना चाहती थी। “कहीं ऐसा तो नहीं कि ..” गुलनार डर रही थी।

वह तो उजागर होना ही न चाहती थी। वह तो चाहती थी कि यूं ही – चुपचाप स्वामी जी की निगाहों के उस पार वो आश्रम के स्टोर में जीती रहेगी। उनकी छांव में बैठ अदृश्य ही बनी रहेगी। साथ साथ तो रहेगी पर परछाई बनकर!

“नहीं गुलनार! सब की मंशा है कि तुम्हीं सजोगी श्रावणी मां!” सेठानी सरोज मानी कब थी। “हर्ज क्या है भाई?” उनका अनुरोध था। “हम सब सबकी सेवा में हैं – बस।” सेठानी जी का एक ही दर्शन था। “गुलाबी जैसा घमंड बुरा है, गुलनार!” वो बताती रही थीं।

लेकिन अब .. आज गुलनार का मन बदल रहा था। स्वामी जी से मिलने की चाह हर पल बलवती हो रही थी। बार बार वह भागती और स्वामी जी से प्रत्यक्ष में जा मिलती। बेहद मधुर कंठ से, बेहद मीठे शब्द चुन कर धीमे से कहती – स्वामी जी! मैं .. मैं .. आपकी थी, हूँ और रहूंगी वैराग्य मेरे वश का नहीं है।

गुलनार जानती थी कि उसका पीतू कितना सीधा और सच्चा आदमी था। एक ईमानदार पुरुष था – पीतू! वह गुलनार का था – गुलनार के लिए था, लेकिन गुलनार?

“चुरा कर लाए हो कचौड़ियां?” गुलनार पूछ रही थी।

“हां! तुम्हारे लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ, गुलनार!” पीतू की वही आकर्षक आवाज थी। “लो! खाओ, मैंने ही बनाई हैं!”

पेड़ की गहरी छांव तले बैठ वो दोनों कचौड़ियां खाते – साथ-साथ और ..

“क्या बात है स्वामी जी?” शंकर पूछ रहा था। “आप उत्सव में जाते ही नहीं?”

“मैं तो तपस्वी हूँ शंकर!” हंस कर बोले थे स्वामी जी। “उत्सव में मेरा क्या काम?”

लेकिन तपस्या पर बैठे स्वामी पीतांबर दास शरीर को अकेला छोड़ कहीं सैर सपाटों पर निकल गए थे।

“अगर तुम आज नहीं आती गुलनार तो मैं रेल के नीचे आकर कट मरता!” पीतू बता रहा था। “तुम्हारे बिना अब मैं जी न पाऊंगा गुलनार!”

“तुमने मुझे बिकने से बचा लिया पीतू!” बांहों में समाते हुए गुलनार कह रही थी। “मैं तुम्हारा ये अहसान कभी नहीं भूलूंगी!” उसने वायदा किया था।

अचानक दो परछाइयां आकर साथ-साथ आ मिली थीं।

“मैं तुम्हारे लिए मर चुका था – लेकिन फिर जिंदा हो गया!” पीतू हंस रहा था। “फिर तुम मेरे लिए मर चुकी थीं – लेकिन फिर जिंदा हो गईं!” उसने आश्चर्य व्यक्त किया था। “और आज हम दोनों ..”

“लेकिन .. लेकिन ये बच्चे कहां गए?” गुलनार ने पीतू से पूछा था। “अब तो वक्त है पीतू – बसाते हैं एक नया संसार! चलो-चलो! तुम सम्राट पीतांबर महान बनो और मैं तुम्हारी महारानी गुलनार बनती हूँ! बुलाओ बेटों को! चलाते हैं अपना राज-पाट!”

और अचानक ही उनके चारों बेटे घोड़ों पर सवार हो-हो कर हुक्म बजाने के लिए तैयार थे।

“टैम हो गया स्वामी जी!” शंकर ने उनका ध्यान तोड़ दिया था। “आशीर्वाद लेने के लिए लोग खड़े हैं!” उसने याद दिलाया था।

स्वामी जी अपने साम्राज्य को सूना छोड़ यथार्थ में चले आए थे।

भक्तों को आशीर्वाद देते-देते भी स्वामी जी का मन आज अधीर था। गुलनार का बार-बार स्मरण हो आता था। बार-बार वह भागते और जीने की सही और सच्ची राह से भटक जाते!

कुटिया में लौटे थे तो बाहर खड़ा उनका राजमहल उनपर हंस रहा था।

तो क्या परम सुख सपनों को जीने में ही मिलता है?

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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