“तुम्हें नदी में फेंकने के बाद एक अजीब सा हर्षोल्लास था परिवार के बीच! एक विजय भाव था चारों बेटों के चेहरों पर। ऐसा लगा था मानो उन्होंने अपने किसी जन्मजात दुश्मन को सावधानी से, चालाकी से और मिलकर समाप्त कर दिया हो।” गुलनार बता रही थी।
“ये योजना किसने बनाई थी?” स्वामी जी ने पूछा था।
“सुधीर ने!” गुलनार ने घुन्डी खोली थी। “सुधीर चारों में ज्यादा चतुर था – ये तो तुम भी जानते थे।”
अचानक ही अपने बेटे सुधीर को स्वामी जी ने पास खड़ा पाया था। बहुत ही गोरा चिट्टा और आकर्षक बच्चा था – सुधीर। वो सोचते – ये जरूर सफलताओं के सोपान चढ़ेगा और उनका नाम रोशन करेगा। लेकिन ..
“नाहरपुर पहुंच कर परिवार प्रसन्न हो गया था। पहाड़ों के आंचल में बसा ये कस्बा एक अजीब आवाजाही में डूबा था। पहाड़ों से लोग आते थे – बाजारों से माल ले जाते थे। खूब सहल पहल थी। मुझे जंच गया था कि हमारा कचौड़ियों का धंधा यहां खूब चलेगा!” गुलनार ने पलट कर स्वामी जी की आंखों को पढ़ा था।
“चला ..?” स्वामी जी ने विहंस कर पूछा था।
गुलनार लंबे पलों तक चुप बनी रही थी। जैसे पूरा कचौड़ी प्रकरण उसे कहीं से तोड़े दे रहा था – स्वामी जी ने महसूस किया था।
“कहां चला!” एक लंबी उच्छवास छोड़ कर गुलनार बोली थी। “घर किराए पर मिल गया था और साथ में ही दुकान थी। बबलू ने रात दिन दौड़ भाग कर सारा सामान जुटा लिया था। एक कारीगर भी वो पकड़ लाया था। मैंने पूछा था तो उसने अपने आप को खानदानी हलवाई बताया था।” गुलनार चुप हो गई थी। उसकी निराश उदास आंखें असफलताओं की कहानी कहती रही थीं।
“फिर क्या हुआ?” तनिक चुटकी ले कर पूछा था स्वामी जी ने।
“उसने कचौड़ियां बनाई तो थीं लेकिन तुम्हारी जैसी गोल, गुलाबी महकती और मुसकुराती नहीं थीं। चटनी में भी लहसुन की रमक थी। ग्राहक आए थे। कचौड़ियां खाते खाते और पत्ता फेंकने के अंदाज से ही मुझे जंच गया था कि ये अब न लौटेंगे।”
“नहीं लौटे?”
“नहीं!” गुलनार ने आह रिता कर कहा था। “खूब कोशिश की थी। बबलू ने भी अपना दिमाग चलाया था। मैं भी जूझती रही थी। लेकिन तुम्हारी जैसी कचौड़ियां ..”
“ये भी तो एक कौशल है – गुलनार!” स्वामी जी बोले थे। “कौशल – कोई भी हो परमात्मा की देन होता है। ये होता है – तो बस होता है! मैंने किसी से सीखा थोड़े ही था – कचौड़ी बनाना।”
“और स्वामी पीतांबर दास बनना ..?” गुलनार ने अपनी चिर इच्छित जिज्ञासा को फौरन व्यक्त कर दिया था।
“किसी ने नहीं सिखाया!” हंस गए थे स्वामी जी। “मरने मरने से बचा था। न जाने कैसे पार पर आया था और इन पीपल दास के तने से कमर लगा कर बेसुध पड़ा रहा था।” स्वामी जी ने गुलनार के बुझ गए चेहरे को देखा था। “वंशी बाबू ने मुझे स्वामी जी कह कर पुकारा था, जगाया था। भोजन कराया था। और कंबल ओढ़ने को दिया था।” चुप हो गए थे स्वामी जी।
“और फिर ..?” गुलनार का प्रश्न आया था।
“फिर क्या? स्वामी पीतांबर दास का जन्म हो गया था।” हंस रहे थे स्वामी जी। “वैरागी तो मैं बचपन से ही था – गुलनार! प्रेम के सिवा मैंने तुमसे भी और कुछ नहीं मांगा! लेकिन – लेकिन .. प्रेमाभाव के कारण .. उस उपेक्षा के कारण जो तुमसे मुझे मिला – मैं .. मैं पव्वे की ओर मुड़ गया था।” गंभीर थे स्वामी जी। “इसे मेरी भूल कहो, मेरा अपराध कहो या फिर व्यसन मान लो! गुनहगार तो मैं था ही – गुलनार!” स्वामी जी की आंखें भी सजल हो आई थीं। “हम दोनों से दो गुनाह हो गए और परिणाम ..?”
गृहस्थ की गाड़ी चलाना कोई आसान काम नहीं होता। स्त्री और पुरुष दोनों का ही योगदान वांछित होता है। अकेले-अकेले होने के बाद गाड़ी पटरी से उतर ही जाती है!
“इसी दिशा भूल में मारे गए हम दोनों गुलनार! जीने की राह भूल गए थे हम!”
स्वामी पीतांबर दास चुप थे।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

