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जीने की राह एक सौ आठ

प्रभु जी मेरे अवगुण चित्त न धरो – गुलाबी मंद-मंद स्वर में स्वयं के लिए गा रही थी। वह आनंद विभोर थी। शनिवार की कीर्तन सभा में अंजली द्वारा गाया भजन और अविकार का दिया साथ उसे बेहद रुचिकर लगा था।

आज सोमवार था। बड़ा ही महत्वपूर्ण दिन था। करवा चौथ का उत्सव आज शाम से ही आरंभ होना था। आज उसे सजना था। आज उसे श्रावणी मां के किरदार को अदा करना था। गुलाबी को स्वामी जी का कहा याद था। प्रभु और प्रकृति के साथ एकाकार हो कर वह भी अब आपा भूल जाना चाहती थी। वह जानती थी कि अब उसका भगोड़ा पति परीक्षित कभी वापस न लौटेगा।

परीक्षित परिवार में सबका प्रिय था। बड़ा ही प्यारा जीव था। सब के काम करता था और सबकी सेवा करता था। लेकिन गुलाबी को उसका ये रोल बिलकुल पसंद न आया था।

“तुम्हीं क्यों सबकी गुलामी करते हो? ये वक्त है आने का? आधी रात तो गारत हो चुकी और तुम हो कि अब लौट रहे हो?” जली भुनी बैठी थी अकेली गुलाबी – परीक्षित के इंतजार में।

“जानती तो हो कि मां कितनी बीमार हैं।” विनम्र भाव से परीक्षित बोला था। “उनके पैर दबा रहा था। सो गई हैं – से चला आया हूँ!”

परीक्षित का उत्तर पाते ही खून खौल उठा था – गुलाबी का!

“शादी क्यों की?” गुलाबी ने विष वमन किया था। “मां थी – तो ..?”

“क्या बकती हो?” परीक्षित आग बबूला हो गया था।

“यही कि तुम ..” और गुलाबी खूब अनाप शनाप बोलती रही थी। वह न जाने किस और कौन से अनिष्ट की पकड़ में पहुंच गई थी। अपना मरना जीना तक उसे याद नहीं रहा था।

परीक्षित चला गया था। परीक्षित घर छोड़ कर चला गया था। घर तो उसने भी छोड़ा था – लेकिन उसे घर नहीं खंडहर कहा जा सकता था। ईंट से ईंट बजा कर उठी थी गुलाबी। क्यों? लेकिन क्यों?

आज उसे आश्रम में आकर उत्तर मिला था। अब उसे स्वामी जी श्रेष्ठ लगने लगे थे।

“मंजू कहां मर गई?” अचानक गुलाबी का ध्यान टूटा था। “बल्लियों दिन चढ़ आया है!” उसने महसूस किया था। “सजना है!” वह बोल उठी थी। “श्रावणी मां के सजने के लिए अभी तक बुलावा क्यों नहीं आया?”

गुलाबी मंजू की खोज में निकल पड़ी थी।

“कहां मर गई थी – तू!” गुलाबी बरस रही थी। “सोमवार है। श्रावणी मां के लिए सजना नहीं?”

मंजू चुप बनी रही थी। मंजू भय से कांप रही थी। मंजू जानती थी कि गुलाबी को सूचना मिलते ही तूफान आएगा – आश्रम में!

“बोलती क्यों नहीं?” गुलाबी ने मंजू को झिड़का था।

“वो .. वो किसी और को सजाया जाएगा!” मंजू ने रुक-रुक कर बयान किया था।

“क्या ..? क्या कहा तूने? किसी और को सजाएंगे – श्रावणी मां बनाएंगे?” गुलाबी को गहरा आघात लगा था। “किसे .. किसको .. कौन है वो ..?” गुलाबी रो देना चाहती थी।

“मुझे नहीं पता!” मंजू साफ नाट गई थी।

गुलाबी का आकर्षक तन बदन जल भुन कर राख हो गया था।

गुलाबी के जेहन में अब एक एक कर नाम उग रहे थे। स्वामी जी ऐसा नहीं करेंगे – वह जानती थी। वंशी बाबू भी बुरे नहीं थे। श्री राम शास्त्री भी कहीं शामिल न थे। अमरीश जी को कोई लेना देना न था। सरोज सेठानी का नाम आते ही गुलाबी का तन बदन दहक उठा था। औरत की सबसे बड़ी दुश्मन औरत ही होती है – गुलाबी को स्मरण हो आया था।

“नंगा करके निकालूंगी इस आश्रम से ..!” गुलाबी ने प्रण किया था।

गुलाबी केकयी बनी कोप भवन में जा बैठी थी तो मंथरा बनी मंजू किसी और ही जुगाड़ में थी। कांटे से कांटा कैसे निकलेगा – मंजू को अब समझ लेना था।

गुलाबी और मंजू जीने की सुगम राह छोड़ विध्वंस की राह पर चल पड़ी थीं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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